तुमने कभी सोचा सूखे तपे पहाड़ों का दुःख
मेरे जिस्म से निकलने वाली नदियों समय के क्रूर पत्थरों अस्मिता की अँधेरी गलियों में भटकने वाली दलित आत्माओं बाहर निकलो उन्होंने हमें सच का प्रलोभन दिया है छीना है हमारा स्वत्व, हमारा घर, हमारे हरे-भरे खेत हमारे लहू में नमक की मात्रा बढ़ा दी है गला दी हैं हमारी कमजोर अस्थियाँ सिर्फ मौत का समझौता करते हुए बेच दिया है रोटी का एक टुकड़ा बेटी के लिए रोटी का वही टुकड़ा मेरे जीवन का अंतिम उद्देश्य हो गया है हमने कभी नहीं सोचा प्रेम में नयापन कभी सौन्दर्यबोध की कविता नहीं रची भाषा में ऊंट की पीठ पर कविता लिखते हुए गुलाब के दावे को सुर्ख किया है हमने हम अपनी बदबूदार गलियों में भटकते रहे हैं दर-दर करते रहे हैं माई-बाप हम असंतुष्ट कभी नहीं रहे धर्म और अहिंसा के पेंडुलम में भकाते हुए तुमने भेज दिया घर में शमशानी शांति तुमने हमारा मरणभोज खाया है पीढ़ियों से जूठन खिलाया फेंका हुआ नए सूरज का उदय हुआ है पूरब में हम राजा से मांग रहे हैं अपनी खोई हुई मुहरें यह अस्मिता या अस्...