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मार्च 15, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं मनुवादी होना चाहता हूँ

मैं मनुवादी होना चाहता हूँ कोई इस सुन्दर विषय पर लिखना ही नहीं चाहता. इस विषय की प्रासंगिकता ब्राम्हण काल से लगातार बनी हुई है. अब तो ज्यादा ही प्रासंगिक है क्योंकि दलित-आदिवासी साहित्य आजकल उभार पर है. ऱोज ही नई-नई दलित आत्मकथाएं लिखी जा रहीं हैं. हिंदी में तो जातीय साहित्य भरा पड़ा है. लेखक अपनी जाति को दिमाग में रखकर किताबें लिखता है.आप पूरा हिंदी साहित्य पढ़ लें. सब एक ही जाति ने लिखा है. हालाँकि अपवाद तो सब जगह होते हैं.  मैंने सोचा एक मैं ही होनहार विरवान हूँ चलो हवा में तीर उछालता हूँ क्या पता कुछ टपक ही पड़े तथापि सावधानी बरतनी भी जरुरी है अतः उल्टी कलम से लिख रहा हूँ. पता चला लेने के देने पड़ गए. फिर भी इसे मैं पवित्र पाप की तरह ही ले रहा हूँ. उस कटेगरी के लोग इसे न पढ़े जिनका आगे जिक्र आया है. जिसका कभी ह्रदय का आपरेशन हुआ हो, सेक्युलर होने की बीमारी हो, अपनी जाति से स्वाभाविक घृणा हो या कभी भी जातिदंश न झेला हो, समाज से जिनका बेहतर तालमेल ना हो. ऐसी ही नेकसलाह कमजोर दिल किन्तु सुंदर स्त्रियों को भी दी जाती है हालाँकि यह मेरी व्यक्तिगत सलाह न समझी जाए क्योंकि ...