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जनवरी 10, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
सपनों के जुलाहे चमर जुलाहों की यंत्राश्रित / पनियाई आँखों में अब नहीं उतरता ताना बाना सूख गए हैं स्रोत रो रही है गाभिन नदियाँ महाजनों की कारस्तानी बीते दिन की बात हो गई शोर मचने वाली मशीने खामोश रखती हैं उन्हें आज भी गुप्तचर के दरोगा बताते हैं जी रहें हैं वे सपने बुनते हुए.                   पिता यह मैं जानता हूँ की अभाव की पीड़ा में पथराये पिता/ तुम्हारे सपने /कुंठित नहीं थे और न ही थे मुरझाये हुए / कि दूबघास की तरह अंखुआते बरसात आने पर तुमने अपने लहू से / गढ़ी थी एक इबारत एक फलसफे को इंकार किया था / जो बोझिल करता था   पर तमाम उम्र तक / उम्मीद से नहाई तुम्हारी आँखों ने आखिर किया ही क्या था बकौल उनके   तुम जीते रहे बगैर उनकी परवाह किये जबकि तुम जानते थे की वो जरुरी था   आज अभाव से जूझते तुम्हारी नाउम्मीद आँखों में वे सपने हरे नहीं / हरे हैं तो / जवानी के वे दिन जिन्हें तुम बताते हो / न सुननेवाले को भी सुन...