सपनों के जुलाहे
चमर जुलाहों की यंत्राश्रित / पनियाई आँखों में
अब नहीं उतरता ताना बाना
सूख गए हैं स्रोत
रो रही है गाभिन नदियाँ
महाजनों की कारस्तानी बीते दिन की बात हो गई
शोर मचने वाली मशीने
खामोश रखती हैं उन्हें
आज भी गुप्तचर के दरोगा बताते हैं
जी रहें हैं वे सपने बुनते हुए.
पिता
यह मैं जानता हूँ
की अभाव की पीड़ा में पथराये
पिता/ तुम्हारे सपने /कुंठित नहीं थे
और न ही थे मुरझाये हुए / कि दूबघास की तरह
अंखुआते बरसात आने पर
तुमने अपने लहू से / गढ़ी थी एक इबारत
एक फलसफे को इंकार किया था / जो बोझिल करता था
पर तमाम उम्र तक / उम्मीद से नहाई तुम्हारी आँखों ने
आखिर किया ही क्या था
बकौल उनके
तुम जीते रहे बगैर उनकी परवाह किये
जबकि तुम जानते थे की वो जरुरी था
आज अभाव से जूझते
तुम्हारी नाउम्मीद आँखों में
वे सपने हरे नहीं / हरे हैं तो / जवानी के वे दिन
जिन्हें तुम बताते हो / न सुननेवाले को भी
सुनाकर हल्का कर लेना चाहते हो/
सदियों की पीड़ा को
इस पर तुर्रा है, कि गाँव तक पहुची इस पक्की सड़क पर
धुआं उगलते तुम्हारे बच्चे / विकास होने तक
बाजार की उठापटक से वाकिफ हो रहे हैं
और इक्कीसवीं सदी की सनसनी
सेंसेक्स देख रहे हैं नंगी आँखों से
सच का सामना
सन्नाटे को चीरती
एक आदिम हँसी के बाद
अचानक कुहुक पड़ी थी उसकी आवाज
खिल पड़े थे पथराये फूल
खुशबु विखर गयी थी फिजा में
कचनार सी
रोज की तरह आज भी / लौटी थी वो स्कूल से
तरोताजा सपने गुनगुनाते हुए
कन्धों पर बचपन उठाए
चाचा लिख दो न प्लीज / मै आवाज बनना चाहती हूँ
मै बताना चाहती हूँ लोगों को / कन्याभूर्ण हत्या की
बुराई
आज की तारीख में सोचता हूँ तो रो पड़ती हैं राहें
पसीज जाती हैं खुरदरी हथेलियाँ
बीस बरस पहले / कन्नू भौजी की यही
पेट्पोच्छनी बिटिया
कैसे बनी परिवार का हिस्सा
वह उसे जानने की कोशिश नहीं करती
न ही उसे बताना है
एक लम्बी गाथा है नारी सशक्तिकरण और उनसे जुड़े
तमाम सत्यों की
बीस बरस पहले का विज्ञान
जब खोज रहा था युक्तियाँ
जब देह को बनाने बिगाड़ने के यन्त्र नहीं थे सुलभ
सभ्य मानव के पास
तब भी असफल प्रयास हुआ था
दी गई थी दाई अम्मा को जिम्मेदारी
कि न खिले नन्ही दुनिया का अरहुल
तब लोग इतने पढ़े लिखे नहीं थे
या कुछ अमीरों जैसा धन भी नहीं था उनके पास
न ही शादिया होती थी अनिवासी भारतीयों के साथ
आज के ज़माने की नई बिटिया को
मैं लिख कर दे रहा हूँ
कानून कायदे अधिनियम बीमा छात्रवृति मुप्त
सायकिल
राज्य सरकारों के भारी खर्चीले विज्ञापन
पर नहीं बता पा रहा बिटिया को
कि नहीं रही नेक इच्छाशक्ति
हम पढ़े लिखे लोगों के भीतर
अनहद
जब तुम सरहद खीच देते हो
हवा पानी चिड़िया के लिए
जब तितलियाँ मजबूर होती हैं / तुम्हारे तुगलकी
फरमान पर
जब तुम बटवारा करते हो अपने ही भाई से
जब तुम नदियों को बाधने का जोखिम उठाते हो
सिर्फ अपने लिए आरक्षण की बात करते हो
जब तुम बेतहाशा प्यार और नफरत करते हो अपने ही
बच्चे से
तुम सही भी हो सकते हो! सोचते हो ऐसा
जब तुम बिजली बनाते हो बहते पानी से
तब एक अंजान आदमी तलाशता है विकल्प
तुम्हारे भीतर / मै जानना चाहता हूँ वह आदमी कौन है
तुम नहीं बताते हो जिसका नाम
भवदीय
डॉ. कर्मानंद आर्य,
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र
बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, पटना
चलभाष : ०८०९२३३०९२९
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें