मुसाफ़िर बैठा की कवितायें :
मुसाफ़िर बैठा :
चर्चित
दलित लेखक. एक काव्य संग्रह प्रकाशित. एक काव्य संग्रह, एक अनुवाद पुस्तक एवं एक आलोचना पुस्तक प्रकाशन की प्रक्रिया में है.बिहार
विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में कार्यरत. ‘मुसाफिर बैठा’ बिलकुल अलग मिज़ाज के कवि है. वे चर्चित दलित लेखक हैं. ’बीमार मानस का गेह’नामक उनका एक काव्य
संग्रह प्रकाशित हो चुका है. वे बिहार में दलित अस्मिता और बेबाकी से अपनी बात
रखने वाले कबीरी परम्परा के एक मात्र कवि हैं. अभी हाल में ही उन्होंने ‘ बिहार-झारखण्ड : चुनिन्दा दलित कवितायें’ नामक सग्रह के सम्पादन का
कार्य करके अपनी मेधा का परिचय दिया है.
ना मर्द बनने का अभ्यास
आज पहली बार
मैंने घर-भर के सारे काम
किये
चूल्हा चौका किया
बर्तन-बासन मांजा
खुद ही अपना खाना लगाया
बीवी बच्चों का भी पत्तल
सजाया
झाड़ू पोंछा लगाया
मर्द हाथों से बार बार
अपने
रुग्णदेह संगिनी के पाँव
दबाया
घर में मालिक होते हैं हम
मर्द
और, घर के काम की मालिक औरतें
मजबूरन, घर को स्त्री-भर संभाला
कुछ ना मर्द बनने का
कुछ कुछ अभ्यास किया।
जुनूनी दशरथ मांझी
एक मनुष्य द्वारा पहाड़ का
ढाया जाना
मुहावरे में ही संभव नहीं
है केवल
जमीनी व्याप्ति भी हो
सकती है
इस जैसे महाकर्म की
मिथक में ही रहे कोई
भागीरथ
जलरास्ता निकालते हुए
पर्वत से
यह भी जरूरी नहीं
झुठलाया जा सकता है इसे
मंझे मांझी-कर्म से
जरूरी नहीं कि आप
असंभव सी राह को कल्पना
में ही रहे तलाशते
और यथार्थ में उसे संभव
करने से
छिटककर कर लें दूर से ही
प्रणाम
जैसे कि धरती पर समय समय
पर आये
महापुरुषों को तो हम
ओढ़ाते रहे हैं देवत्व और
उनके किये अपूर्व कार्यों
कारनामों से
हम लेते हैं पल्ला झाड़
कि यह तो बस उनके ही बस
की थी बात
हमने ईसा बुद्ध महावीर
नानक जैसे महामानवों पर
देवत्व का मुलम्मा चढ़ा
दिया
किया कबीर रैदास जैसे
अपूर्व श्रमणों को भी
ऐसे ही चढ़ा किया अछू
अश्लील ऊंचा
और अभी अभी आये अम्बेडकर
को भी
उसी राह ले जा रहे हैं हम
रखने
जीवन हौसले में है भागने
में नहीं
किसी को अपनाना
उसके रास्ते चलने के
प्रयासों में है
महिमामंडित करने मात्र
में नहीं
अपने रथहीन जीवन से भी
हम मांझी बन सकें बन सकें
सारथि
दशरथ मांझी की तरह
जीवन की एक खूबसूरती यह
है।
डर का घर
जिसे तुम कहते हो देवालय
वह है फकत
स्वार्थ और लोभ के गारे
मिट्टी से बना
डर का घर।
लिख
दुःख का नाम दलित तू लिख!
लिख, सुख का नाम सवर्ण लिख!
दुःख सुख के मंझधार का
नाम तू ओबीसी लिख!
लिख, भगवा भारत में हड़काए सताए का नाम तू मुस्लिम लिख!
जल जमीन से हटाए भगाए का
नाम तू आदिवासी लिख!
लिख, इस देश का नया नाम
जात-पांत-धर्मविकार-का-न-पारावार
तू लिख!
ब्राह्मणवाद की विष-नाभि
की थाह में
मैं गह्वर में उतरना
चाहता हूँ
ब्राह्मणवाद की गहराई
नापने
पाना चाहता हूँ उसकी
विष-नाभि का पता
और तोड़ना चाहता हूँ
उसकी घृणा के आँत के
मनु-दाँत
तुम साथ हो तो सुझाओ मुझे
लक्ष्य संधान के
सर्वोत्तम उपाय
बताओ क्या क्या हो
प्रत्याक्रमण में सुरक्षा
के सरंजाम
लखाओ मुझे वह दृष्टि कि
गुप्त-सुप्त
ब्रह्म-बिछुओं की शिनाख्त कर सकूँ
मेरा हाथ पूरते कोई मुझे
अनंत डोर दो
जिसके नाप सकूँ नाथ सकूँ
इस शैतान की आँत को
बाँधो मेरी अंटी में
अक्षय रेडीमेड ड्यूरेबल खाना दाना
दो ऐसी तेज शफ्फाफ रौशनी
वाली टॉर्च मुझे
तहकीकात काल के अंत तलक
निभा सके जो
मेरे अनथक अनंत हौसले का
अविकल साथ!
थर्मामीटर
कहते हो-
बदल रहा है गाँव।
तो बतलाओ तो-
गाँवों में बदला कितना
वर्ण-दबंग?
कौन सामंत?
कौन बलवंत?
सेहत पाया
पा हरियाया
कौन हाशिया?
कौन हलंत?
जनेऊ-तोड़ लेखक
लेखक महोदय बामन हैं
और हो गये हैं बहत्तर के
विप्र कुल में जन्म लेने
में
कोई कुसूर नहीं है उनका
वे खुद कहते हैं और हम भी
लेखक ने अपने विप्रपना को
इस बड़ी उम्र में आकर
धोने की एक बड़ी कर्रवाई
की है
तोड़ दिया है अपने जनेऊ
को
और पोंछ डाला है अपने
द्विजपन को
अपने लेखे
कहिये कि जग के लेखे
बल्कि जग के लेखे ही
बावजूद
लोग उन्हें
मान बक्शते हैं सतत विप्र
का ही
सतत घटती इस घटना में भी
उनका क्या रोल
वे किसको किसको कहाँ कहाँ
अपने जनेऊ तोड़ लेने का
वास्ता देते फिरे
हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण
मंच पर
बदस्तूर अब भी मिल रहा है
उन्हें बुलावा
और उनके जनेऊ-तोड़
डी-कास्ट होने के करतब को
रखते हैं ठेंगे पर सब
अपने पराये
सवर्ण-मान पर ही रखकर
उन्हें हर हमेशा
वे गुरेज करें भी तो करें
कैसे
क्यों
मिलते अधिमान को
कि इन मानों से
जनेऊ तोड़ना आसान है
क्योंकि यह टूटता है बाहर
बाहर ही
भले ही रहता हो सात बसनों
के अन्दर
गोकि
बाहर बाहर टूटकर भी
उसके टूटने का बाहर कोई
असर आये ही
कतई जरूरी नहीं
असर के लिए
पुरअसर पाने के लिए
धागा के साथ बहुत कुछ
तोड़ा जाना जरूरी है
दशरथ मांझी सा बाइस बरस
लगा
किसी बड़ी कार्रवाई का
साथ लगाना जरूरी है
बड़ा तोड़ने के लिए
जनेऊ द्विजत्व है
दो मनुष्य होना है
एक माता उदर से
दूसरे खुद को अलग से
जन्मा
मान लेने से
जन्म-दर्प का दर्पण है यह
और यह सतत घटित होती एक
कार्रवाई है
चाहे यह आपके मन से घटे
अथवा मन के विरुद्ध
बताया पूछा लेखक से
जनेऊ तोड़ा ठीक किया
इसके अलावा अपनी जात-जनेऊ
का
क्या क्या तोड़ा आपने
लेखक अभी याद करने में
लगा है!
डॉ. मुसाफिर बैठा हिंदी दलित कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं.
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