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जनवरी 3, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दलित साहित्य को अपने कैनन खुद गढ़ने होंगे : डॉ. कर्मानंद आर्य

अन्य अनुशासनों में शोध और अनुसंधान की स्थिति और गति क्या है , मैं नहीं जानता. किन्तु हिंदी में शोध की गुणवत्ता से हम सभी परिचित हैं. समकालीन दौर में जो विमर्श चर्चा के केन्द्र में है उनमें आदिवासी , स्त्री और दलित विमर्श सर्वाधिक महत्वूपर्ण है. हम सभी लोग इस बात को लेकर खूब दुखी हो ले सकते हैं कि आखिर आज के इस अति वैज्ञानिक युग में भी दलितों , आदिवासियों , स्त्रियों , अल्पसंख्यको के प्रति हमारी धारणा घोर पारंपरिक और प्रतिक्रियावादी क्यों है ?  दुख से उबरने के लिए हम इन विषयों को केंद्र में रखकर गुरू गंभीर शोध करते और करवाते हैं. मोटी-मोटी पुस्तकें लिखते हैं. पत्रिकाओं के विशेषांक निकालते हैं , सेमिनार गोष्ठियाँ करते हैं और न जाने क्या-क्या करते हैं ?   लेकिन हम इस विषय पर अपेक्षाकृत बहुत कम सोच पाते हैं कि जिस अवस्था में नवनिर्माण और विचार की निर्मिति होती है , उस समय में हम उदासीन रह जाते हैं. हम लिखते रचते समय यह ध्यान नहीं रख पाते कि हमारी साहित्यिक सामाजिक बनावट में उनका भी महत्वपूर्ण हिस्सा है. अभी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में ‘ अस्मितामूलक ’...