दलित साहित्य को अपने कैनन खुद गढ़ने होंगे : डॉ. कर्मानंद आर्य



अन्य अनुशासनों में शोध और अनुसंधान की स्थिति और गति क्या है, मैं नहीं जानता. किन्तु हिंदी में शोध की गुणवत्ता से हम सभी परिचित हैं. समकालीन दौर में जो विमर्श चर्चा के केन्द्र में है उनमें आदिवासी, स्त्री और दलित विमर्श सर्वाधिक महत्वूपर्ण है. हम सभी लोग इस बात को लेकर खूब दुखी हो ले सकते हैं कि आखिर आज के इस अति वैज्ञानिक युग में भी दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यको के प्रति हमारी धारणा घोर पारंपरिक और प्रतिक्रियावादी क्यों हैदुख से उबरने के लिए हम इन विषयों को केंद्र में रखकर गुरू गंभीर शोध करते और करवाते हैं. मोटी-मोटी पुस्तकें लिखते हैं. पत्रिकाओं के विशेषांक निकालते हैं, सेमिनार गोष्ठियाँ करते हैं और न जाने क्या-क्या करते हैं?  लेकिन हम इस विषय पर अपेक्षाकृत बहुत कम सोच पाते हैं कि जिस अवस्था में नवनिर्माण और विचार की निर्मिति होती है, उस समय में हम उदासीन रह जाते हैं. हम लिखते रचते समय यह ध्यान नहीं रख पाते कि हमारी साहित्यिक सामाजिक बनावट में उनका भी महत्वपूर्ण हिस्सा है.
अभी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में अस्मितामूलकसाहित्य को स्थान देने के लिए एक लम्बी बहस छिड गई. प्रश्न था किस साहित्यकार को पाठ्यक्रम में जगह दी जाय और किसे छोड़ दिया जाय. पाठ्यक्रम में जगह बनाने के लिए किसी रचना अथवा रचनाकार में क्या योग्यता होनी चाहिए? क्यों कुछ लोगों को दिनकर, निराला, नामवर से बड़ा लेखक दूसरा नजर नहीं आता? वे आज भी ओमप्रकाश बाल्मीकि, प्रो. तुलसीराम, तेज सिंह, डॉ. धर्मवीर, डॉ. चौथीराम यादव, जयप्रकाश कर्दम, अनीता भारती, रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल, विमल थोराट आदि से क्यों बचना चाहते हैं? क्या पाठ्यक्रम का कोई अपना चरित्र है या वह पाठ्यक्रम बनाने वाले के चरित्र पर ही निर्भर है. भारत में जब से हिंदी पढ़ी पढाई जा रही है तब से क्या कोई मानक पाठ्यक्रम को लेकर बनाये गए हैं?वे पढ़ने पढ़ाने वाले अधिकतम किस समुदाय से आते हैं? उनके मूल्य क्या हैं? उनकी वैचारिकी कहाँ जाकर टिकती है. यहाँ पर किसी के स्वीकार या नकार में प्रतिमानों या कैननो कि महत्वपूर्ण भूमिका होती है. यह भी प्रश्न उठा कि क्या हिंदी साहित्य में कोई अपने भी कैनन हैं या वे सारे के सारे पाश्चात्य प्रतिमानों या कुछ संस्कृत के उधारी पर चलने वाला साहित्य है? इस योग्यताके क्या मानक होते हैं? ‘मानकीकरणकी प्रक्रिया और पाठ्यक्रमकी प्रक्रिया में क्या अन्तःसाक्ष्य है. क्या कारण है कि हिंदी में पाठ्यक्रम के नामपर अभी तक विष्णुवाद’ ‘राधावाद मार्क्सवादही पढ़ाया जा रहा है? क्या हिंदी साहित्य का पाठ्यक्रम जातिवादी, वर्णवादी, सामंतवादी चरित्र का है? वो कौन से कारक हैं जिनसे कोई साहित्य किसी खाने में ठीक से फिट हो जाता है. इन्हीं प्रतिमानों कि खोज ने ही सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा का जन्म दिया. पुराने प्रतिमानों को हटाकर नए तरह के प्रतिमानों को लाने कि बात आज का दलित-बहुजन साहित्य करता है.
प्रत्येक समय अपने समय की आलोचना स्वयं करता है और अपने मानकों का निर्माण करता है. मनुष्य का इतिहास और कुछ नहीं कैनन निर्माण की प्रक्रिया मात्र है. यही प्रतिमानीकरण हिंदी नवरत्नकी भूमिका में भी हुई. हिंदी साहित्य का इतिहास स्वयं में एक कैनन है. कैनन का विरोधाभासी स्वरूप यह है कि वह एक ही साथ कालातीत भी होता है और समकालीन भी. कैनन के निर्माण की प्रक्रिया में यह उलट फेर हमेशा चलती रहती है. इसका एक लम्बा इतिहास है और रोमन कैथोलिक चर्च की वह प्रक्रिया कब जीवन में आई इसका अंदाजा लगाना सरल नहीं है. बहुत सारी श्रेष्ठ कृतियों के सृजन के बावजूद महिलाएं, दलित, आदिवासी’ ‘अस्मिताके कारण कैनन में जगह नहीं बना सके. कोई रचना कैनन में कैसे शामिल होती है मूलतः इसी विषय को इंगित करता है. कोई रचना महान कैसे बन जाती है? क्या महान रचना के सन्दर्भ में सबके विचार एक जैसे होते हैं? क्या मूल्य निर्धारण मात्र सौन्द्र्यगत आधारों पर किया जाना संभव है?
एक मनुष्य और विकासशील समाजके रूप में मुझे लगता है कि आज हम लोकतंत्र की तरफ एक कदम और आगे बढ़े हैं. निश्चित तौर पर इससे समाज में जनतंत्रकी प्रक्रिया मजबूत होगी ऐसा मेरा विश्वास है. बहसों का कोई अंत तो नहीं होता परन्तु वे सोचने को मजबूर अवश्य कर देते हैं. इस प्रक्रिया में आगे बढ़ते हुए मैं इस अवधारणा से ठीक से परिचित हो पाया कि प्रतिमानीकरण या कैननाइजेशन क्या होता है. वस्तुतः कैनन और कुछ नहीं नए मूल्यों की खोज और प्रतिष्ठा को लेकर चलने वाला संघर्ष और एक लम्बा सिलसिला है. मूल्यों को हम कमाया हुआ सत्यकह सकते हैं. कैनन में हम हायरार्की आफ वैल्यूजको कायम करने की बात की. कैनन के निर्माण हिंदी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया साहित्य इतिहास की बहसों में गहरी रची बसी है. लहक पत्रिका के लिए संजीव चन्दन को दिए एक साक्षात्कार में मैनेजर पाण्डेय से जब पूछा गया कि वर्तमान के तीन प्रमुख हिंदी आलोचकों के नाम बताइये तो उन्होंने तपाक से जीतेन्द्र श्रीवास्तव, पंकज चतुर्वेदी, ज्योतिस जोशी का नाम लिया. जब संजीव ने उनसे पूछा कि आपके नाम में कोई दलित, आदिवासी या महिला आलोचक क्यों नहीं है? तो वे कोई स्पष्ट कारण नहीं बता पाए. क्या कारण है कि डॉ. धर्मवीर जैसे धुर आलोचक नामवर, मैनेजर कि पहुँच से बाहर हैं. विज्ञान में सापेक्षिकता का सिद्धांत होता है और यह संतुलन की बात करता है अनुभूति की प्रमाणिकता की बात  करता है. “What is commonly called literary history is actually a record of choices.” हम जिसे साहित्य का इतिहास कहते हैं वह और कुछ नहीं हमारी चाहतों का विकल्प मात्र है. केनन वस्तुतः और कुछ नहीं  विचारात्मक वर्चस्व (डोमिनेंट) है. तो क्या हम बिना समावेश किये हुए संतुलन कि बात कर पायेंगे. जो कुछ पढाया जा रहा है उसमें भी अपना क्या दृष्टिकोण है?
पहले की पाठ्यपुस्तकों में भी प्रेमचंद की कहानिायाँ संकलित होती रही है किन्तु कबीर और प्रेमचंद की रचना संकलन में संपादक अतिरिक्त सावधानी बरते रहे हैं. पंच परमेश्वर, ईदगाह तथा दो बैलों की कथा ही बच्चों को पढ़ने लायक समझा जाता रहा. प्रेमचंद की कहानी दूध का दामजाति प्रथा की अमानवीयता को तार-तार करती निकलती है. सुप्रसिद्ध हिन्दी दलित कथाकार ओमप्रकाश बाल्मीकि की कहानी खानाबदोशमजदूर वर्ग के शोषण, यातना और जाति विभेद की समस्या का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करती है. लेकिन जब भी उन्हें पाठ्यक्रम में लगाने कि बात होगी तो उन्हीं रचनाओं कि बात होगी जो उनके मूल्यों, मानकों को पूरा करते दिखाई देते हैं. दलित साहित्य के नाम से ही बिदकने वाले हिन्दी के अति शुचितावादी साहित्यकारों और शिक्षकों को ऐसी कहानियों को पढ़ाने में काफी परेशानी होगी. अपने को वर्गच्युत किए वगैर इन रचनाओं को पढ़ा पाना संभव नहीं है.
कैनन सांस्कृतिक अनुकूलन का काम मुख्यतः तीन चरणों करता है. एक तो वह रूचि के दायरे को सीमित करता है. वह 'महत्वपूर्ण ' और 'सुन्दर ' की एक संशयमुक्त स्पस्ट अवधारना प्रस्तुत करता है. ' महानता' को परिभाषित करता है. अपनी पुस्तक आलोचना और विचारधारामें डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि आलोचना की दुनिया विचारों की दुनिया है. और विचार के लिए चाहे गुरु-शिष्य परंपरा हो या विदग्ध लोगों का समुदाय, उनके बीच बातचीत और शास्त्रार्थ जरुरी है. बहस के जरिये एक पीढ़ी में जो सवाल उठते हैं उनके जबाब अगली पीढ़ी को देने होते हैं[1]. यह सच है कि हिंदी आलोचना का विकास पश्चिम की तरह नहीं हुआ. यहाँ आलोचना का विकास कुछ आलोचों के द्वारा नहीं वरन संस्थाओं के द्वारा हुआ है. वह संस्था चाहे कोई पत्र, पत्रिका, प्रतिष्ठान के रूप में हो चाहे शिक्षणसंसथान के रूप में. साहित्य और समाज का रिश्ता द्वंदात्मक है. भूख और अपमान दुनिया के सबसे बड़ा दुःख है जिसकी अभिव्यक्ति दलित साहित्य में होती रही है. हिंदी कैनन में बहस की परंपरा तो बिलकुल नहीं है. कैननों के विस्थापन का प्रश्न अस्मिता के प्रश्न होते हैं. लैंगिक और जातिगत श्रेष्ठता बोध कैनन के निर्माण में कितनी प्रत्यक्ष और कितनी परोक्ष भूमिका निभाता है इसे विमर्शों ने उजागर किया है. यहाँ सर्वमान्य सिद्दांतों पर सवाल उठने लगे. पहले द्वंद्व कलावाद और यथार्थवाद में था अब कैनन इन दोनों की पड़ताल कर रहा है.
ओमप्रकाश बाल्मीकि दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रमें लिखते हैं कि सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्बऔर प्रतीकको प्रमुख माना है विद्वानों ने जबकि सौन्दर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है. कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है. साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं. यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं. दलित साहित्य के लिए अलग सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी यह एक अहम सवाल है. इस पुस्तक की रचना प्रक्रिया के दौरान ऐसे अनेक प्रश्नों से सामना हुआ, जिन पर समीक्षकों को गम्भीरता से सोचना होगा. अलग सौन्दर्यशास्त्र की परिकल्पना से हिन्दी साहित्य का विघटन नहीं विस्तार होगा, ऐसी मेरी मान्यता है. प्रगतिशील और राजतान्त्रिक साहित्य द्वारा भरत में केवल वर्ग की ही बात करने से उपजी एकांकी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य समाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है- ऐसी समानता जिसके बगैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता. दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारस्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध. अपने पुराण साहित्यकारों के प्रति आस्थावान न रह कर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिसमें जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है. लोकतान्त्रिक शिक्षा प्रणालीका झूठ क्या केवल यह है यह सामान्य वितरण के खिलाफहै. हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास प्रतिमान है तब सुमन राजे का इतिहास प्रतिमान कैसे हो सकता है. दुनिया की जितनी महान कृतियाँ हैं वे दो सिरों की बात करती हैं. कैनन के बाहर और भीतर की सभी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए.
यहीं यह भी प्रश्न हैं कि क्या समाज के वंचित तबकों की सौन्दर्य चेतना की हिस्सेदारी इस कलावाद में है. वस्तुतः यह यथार्थ उन आँखों से देखा गया जो यथार्थ की अनुभूतियों से बहुत दूर है. अंग्रेजी में स्त्रीवादी आलोचना बहुप्रचलित शब्द है पर हिंदी में अभी इसका उभार विरल है. कहते हैं किसी को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दीजियेउसके अतीत को इतना बिगाड़ दीजिये की वो कभी अपनी जड़े न खोज पाये. देर ही सही  इन पर से पर्दा उठने का कार्य प्रारम्भ हो गया है. दलित, आदिवासियों, पिछड़ों कि सांस्कृतिक विरासत को हिकारत की दृष्टि से देखने वाले साहित्यकार भाषा के माध्यम से कितना बड़ा व्यूह रचते दिखाई देते हैं. आज समय है अपने प्रतीकों, मिथकों, शब्दों को पुनः खोजने और उसके नवनिर्माण की. प्रसिद्ध विचारक और भारतीय भाषा विज्ञान को नई परिभाषा देने वाले अद्भुत विद्वान् राजेन्द्र प्रसाद सिंह लिखते हैं कि गुरु घंटाल बौद्ध संत थे. इनकी याद में गुरु पद्म संभव ने 8 वीं सदी में गुरु घंटाल मंदिर की स्थापना की थी. यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में है. ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति के आपसी टकराव के कारण " गुरु घंटाल " का अर्थापकर्ष हुआ है. आर्य और द्रविड़ संस्कृति के आपसी टकराव के कारण भी कई शब्दों का अर्थापकर्ष हुआ है जिसमें एक शब्द " पिल्ला " भी है. तमिल में " पिल्ला " मनुष्य के बच्चे को कहा जाता है ,जबकि आर्य भाषाओं में यह कुत्ते के बच्चे का बोधक शब्द है. जैन और ब्राह्मण संस्कृति के आपसी टकराव के कारण " जिन" का अर्थ " भूत- प्रेत" हो गया है. ऐसे तो भाषाविज्ञान कोश में कई ऐसी भाषाओं के नाम दर्ज हैं जो भूत- प्रेत से संबंधित हैं, मिसाल के तौर पर "भूत भाषा", "प्रेत भाषा" , "पिशाच भाषा", "चंडाल भाषा" आदि. ऐसी भाषाओं के नाम आस्ट्रिक और आर्य संस्कृति के आपसी टकराव के कारण है. बाहर से आई जातियों का भी अर्थापकर्ष हुआ है, मिसाल के तौर पर "हुड़हा" (लूटेरा), "उजबुक" (मूर्ख), " कजाक" (डाकू) आदि.ये क्रमशः हूण (मंगोलियन), उजबेक (उजबेकिस्तान), कजाक (कजाकिस्तान) के बोधक शब्द हैं. आदिवासियों का एक तबका असुर है, जो झारखंड में निवास करता है और जिसका प्रमुख पेशा लोहा गलाने का है. शब्दों कि भी अपनी एक गतिकी है जहाँ पर अपने मानकों के आधार पर किसी शब्द को सत्ता के बहुत करीब ला दिया जाता है और कुछ शब्दों को हीनता की दशा तक पहुंचा दिया जाता है.  

अतः हम कह सकते हैं कि सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्बऔर प्रतीकको कुछ विद्वानों ने प्रमुख माना है जबकि सौन्दर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है. कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है. साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं. यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं. हिन्दी समीक्षक रचना के मापदंडों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं. रचना का मापदंड क्या हो सकता हो ? कैसे हो ? इसके लिए जरूरी है कि उसके उदगम और भावबोध पर चर्चा हो, समाजशास्त्रीय आलोचना का विकास हो. उन मापदंडों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है, जो सामन्ती सोच के पक्षधर हैं, कुलीन घरानों के नायकत्व से आतंकित हैं. मानकों का निर्माण किया जाए. उन मानकों की खोज की जाए, उन मूल्यों की खोज की जाए जिनके कारण दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों को सदा से हाशिये पर धकेला जाता रहा है. साहित्य में पुनः उन कैननों का निर्माण हो जिसे ब्राह्मणवादी संस्कृति ने नकारा और प्रतिकैननों का निर्माण क


डॉ. कर्मानंद आर्य

पिता : श्री सहदेव राज, माता : श्रीमती सुगना देवी
पैत्रिक निवास : ग्राम-छपिया,
पोस्ट-गोविन्दपारा,
जनपद-बस्ती, उत्तरप्रदेश-272131

शिक्षा : एम.ए-हिंदी, पी-एच.डी. (हिंदी, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार), यूजीसी-नेट-जेआरएफ

·         विशेषज्ञता/अभिरुचि : काव्यशास्त्र, समकालीन कविता, हिंदी-साहित्येतिहास, दलित-स्त्री-आदिवासी लेखन, साहित्य की वैचारिकी, मीडिया, व्यंग्य लेखन, प्रयोजनमूलक हिंदी में गहरी अभिरुचि.

·         पत्र /पत्रिकाओं में प्रकाशन : शतदल, साहित्य अमृत, आजकल, युद्धरत आम आदमी, दुनिया इन दिनों, दलित साहित्य वार्षिकी, स्कैनर, दोआबा, दलित अस्मिता, वंचित जनता, कथाक्रम, निरुप्रह, परिचय, प्रभात खबर, भास्कर, जनसंदेश टाइम्स, रेत पथ, तलाश, स्त्रीकाल, अंतिम जन, गुरुकुल पत्रिका, निश्रेयस, सेतु, निःशब्द, शब्द सरिता, मिलिंद, शब्द सरोकार, स्वस्ति पन्थाः, व्यंग्य यात्रा, अट्टहास आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन


·         हिंदी ब्लॉग www.asmitakiawaj.blogspot.com; और
www.uttalhawa.blogspot.com पर वैचारिक लेख, कविता का निरंतर प्रकाशन, कविता कोश पर कवितायें उपलब्ध
·         सोशल मीडिया : https://www.facebook.com/karmanand.arya और https://www.facebook.com/Dr.Karmanand पर नियमित लेखन

·         शोध-पत्र : हिंदी भाषा और साहित्य की बीस से अधिक पुस्तकों के लिए अध्याय लेखन, विभिन्न अस्मितामूलक संगोष्ठियों, सेमिनारों में विशेषज्ञ वक्ता के रूप में आमंत्रित.


·         दूरदर्शन और आकाशवाणी पर परिचर्चा, संवाद, कविता पाठ, वार्ता का प्रसारण.

·         पुस्तक प्रकाशन :
1.       अयोध्या और मगहर के बीचकविता संग्रह, दीपक अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना के तहत चयनित और प्रकाशित
2.       ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ कविता संग्रह, मंत्रिमंडल सचिवालय, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार के ‘पांडुलिपि प्रकाशन योजना’ में पुरस्कृत एवं प्रकाशित
3.       ‘अस्मितामूलक साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ आलोचनात्मक पुस्तक, द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, नई दिल्ली-वर्धा, महाराष्ट्र से प्रकाशित
4.       'कविता बिहार : प्रतिनिधिक दलित स्वर' बिहार झारखण्ड के दलित रचनाकारों की कविताओं का सामूहिक कविता संकलन का संचयन-सम्पादन
·         सामूहिक प्रकाशन :
5.       ‘शतदल’ फेसबुक पर सक्रिय 100 रचनाकारों की कविताओं का सामूहिक संकलन, सम्पादक विजेंद्र, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर में कवितायें संकलित
 
·         पुरस्कार : ‘भारतीय जन लेखक संघ’ के द्वितीय महासम्मेलन, पटना में कविता एवं आलोचना लेखन के          योगदान के लिए सम्मानित       
·         संपर्क : +91-88630-93492 / 943000-5835
           Email: karmanand@cub.ac.in,  karmam1984@yahoo.co.in

·         सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया 




[1] आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह, पृष्ठ १३९ 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लेख लिखा है। डॉ. कर्मानंद आर्य जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

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