संदेश

मार्च 31, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चमारी से शादी

एक अज्ञात ख़ुशी की चौंध उठती थी मेरे भीतर तो फूट जाते पीले-पीले लड्डू हरी हल्दी का रंग और गाढ़ा हो जाता थिर मछरी की आँख देखना बंद कर देती   हंस की गर्दन उठा जब भागती हवा, तो खिसिया जाता कोरा मन    हरियायी नीम पर फुदक उठता निहुरा आसमान नदी को चिढ़ाता हुआ   ठीक उसी समय माँ उछालती मेरी शादी का जुमला थरथराती भावनाओं के पास आकर बैठा जाता मन जब उड़ती कोई चिड़िया  माँ का उलाहना सपने में तब्दील हो जाता किसी सफ़ेद घोड़े पर सवार हुआ मैं अपने सहबाला से पूंछता दुल्हन की बातें उसकी सहेलियों की ठिठोली से भर लेता अंकवार दिन बीत गए माँ की ठिठोली याद आती है करवा दूँ किसी चमारी से शादी आज सोचता हूँ क्या माँ मेरे भीतर घृणा पैदा करती थी? माँ घृणा नहीं बो सकती! शादी के सपने दिखा सकती है   वे बचपन के दिन थे बीतने का नाम ही नहीं लेते

रस्सी सुलग रही है

रस्सी सुलग रही है हिंसा की भूमि में, अहिंसा का तांडव क्यों बरगला रहे हो बुद्ध! आओ देखो पटना के दलित होस्टल में तुम पिट रहे हो, पीट रहे हैं तुम्हारे अनुयायी लोमड़ियाँ सिर खुजा रही हैं सत्ता की बिल्लियाँ हाथों में हथियार लिए घूम रहीं है उनके नुकीले हथियार व्यर्थ हो गए हैं उनसे चूहों का शोषण किया जा सकता है उनसे क्रांति नहीं लायी जा सकती है क्या तुम्हारा धर्म हिंसक दैत्यों का रक्षक था तुमने अहिंसा की चादर डाल उन्हें बचा लिया तुम्हारा अनुन्यायी राजा तुम्हारा सम्मान करता था अतः उसने तुम्हारा भव्य महोत्सव मनाया पटना के पास इलाके में सज गया है तुम्हारा मंदिर आओ देखो ! पिटने के बाद करुणा कैसे पैदा होती है आओ देखो युद्धक शांति का सुख महामहिम! जल्दी आना बची हुई रस्सी सुलग रही है तुम्हें शांति का नोबेल मिल सकता है! डॉ.कर्मानंद आर्य