चमारी से शादी



एक अज्ञात ख़ुशी की चौंध उठती थी मेरे भीतर
तो फूट जाते पीले-पीले लड्डू
हरी हल्दी का रंग और गाढ़ा हो जाता

थिर मछरी की आँख देखना बंद कर देती  
हंस की गर्दन उठा जब भागती हवा, तो खिसिया जाता कोरा मन   
हरियायी नीम पर फुदक उठता निहुरा आसमान
नदी को चिढ़ाता हुआ  
ठीक उसी समय माँ उछालती मेरी शादी का जुमला

थरथराती भावनाओं के पास आकर बैठा जाता मन
जब उड़ती कोई चिड़िया 
माँ का उलाहना सपने में तब्दील हो जाता

किसी सफ़ेद घोड़े पर सवार हुआ मैं
अपने सहबाला से पूंछता दुल्हन की बातें
उसकी सहेलियों की ठिठोली से भर लेता अंकवार

दिन बीत गए माँ की ठिठोली याद आती है
करवा दूँ किसी चमारी से शादी
आज सोचता हूँ क्या माँ मेरे भीतर घृणा पैदा करती थी?

माँ घृणा नहीं बो सकती!
शादी के सपने दिखा सकती है  

वे बचपन के दिन थे
बीतने का नाम ही नहीं लेते

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