‘कविता कलाविहीन’ / आशाराम जागरथ / कर्मानंद आर्य

‘कविता कलाविहीन’
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डॉ. कर्मानंद आर्य

कविता कलाविहीन’ अवधी के अरघान फेम ‘पाही माफ़ी’ के उद्भावक आशाराम जागरथ का पहला कविता संग्रह है. एक बार फोन पर लम्बी चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि अन्य दलित रचनाकारों की तरह वे भी अपने जीवन की दुसाध्य कठनाइयों से उबरने की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा लिखने का मन बना रहे थे और उसके कुछ पन्ने लिखने के बाद उन्हें यह अहसास हुआ कि उन्हें अपना सुख-दुःख गद्य में नहीं अपितु कविता में व्यक्त करना चाहिए. फिर उन्होंने जीवन की रागात्मकता को कविता में हथियार की तरह प्रयोग किया और वहीं से ‘कविता क्लाविहीन’ नामक इस संग्रह की संगठना हो पायी. सौन्दर्य के बने-बनाये प्रतिमानों पर प्रश्नों की बौछार तो अब तक होती रही है पर अपनी कविताओं को ‘कला विहीन’ कोई कबीर ही कह सकता है. कलाविहीनता का यह उदघोस ह्रदय के विशाल फलक को दर्शाता है वह भी तब जब हिंदी की लोकभाषा अवधी में ‘पाही माफ़ी’ के चार सौ छंदों में कवि ने ऐसा धमाल मचाया हो कि उन कविताओं की खुशबू को कोई दरकिनार न ही कर पाये.

       हिंदी कविता की बहुत लम्बी परम्परा हमारे पास मौजूद है. सरहपा और हीराडोम की कविता आगे चलकर आजादी से मोह भंग और अति वाम राजनीतिक उतार पर आती है. जहाँ कविता में यांत्रिक नारेबाजी और मध्यवर्गीय अराजकता का स्वर धीमा पड़ता है और एक नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह गूंजती एकदम नए स्वरों की कविता सामने आती है जिसे हम दलित कविता का नाम देते हैं. परम्परा और प्रतिरोध में निजी अनुभवों की कविता. ईमानदारी की अनुभूति की कविता जिसका सम्बन्ध जीवन और उसकी उर्वरता से होता है.  कविताओं को पढ़ते समय हम जिस बुद्ध की करुना का एहसास उनके शब्दों में पाते हैं वह हमें भीतर से आह्लादित करता है. रैदास की कर्मभूमि बनारस में रैदास को बहुत कम सुना गया. कहते हैं वहाँ कबीर को भी बहुत कम सुना गया. पर तुलसी को सुनने वाले वहां बहुत हुए. कबीर और रैदास को उत्तर भारत के अन्य हिस्से या मध्य भारत में अधिक सुना गया पर पाखंडी धरती ने उन्हें कभी गले नहीं लगाया. इसी न सुने जाने की पीड़ा का महाआख्यान है ‘कविता कलाविहीन’. कवितायें आपसे आग्रह नहीं करती कि आप उन्हें पढ़ें अपितु आप यह समझ ही नहीं पाते कि कविता कब आपके मन-मस्तिष्क में घर कर गई. कब उसने उस शाश्वत पीड़ा को फिर दुहरा दिया जिससे सारी मनुष्यता कराह रही है.
       आशाराम जागरथ लगभग उसी देश के वासी हैं जहाँ से अदम गोंडवी नामक एक शायर ने लिखा था-आइये महसूस करिए जिन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको’. उसी भूमि के चमारों, धोबियों, मुसहरो, मालियों ने जब अपनी पीड़ा को कविता में लिखा तो वह कलान्दोलन की कला से युक्त नहीं परन्तु लयहीन, छन्दहीन कविता कलाविहीन के रूप में. जो कुछ लिखा उसका धरातल उस हर पीड़ित का धरातल है जो दुनिया में कहीं भी शोषित-पीड़ित है. नई-भाषा, नए – बिम्ब, नई बुनावट और बनावट के साथ जो कविता की नई पीढ़ी दलित साहित्य में आयी है उसके प्रमुख हस्ताक्षर हैं आशाराम जागरथ. बाबा साहब आंबेडकर ने दलित मुक्ति के लिए जितने सवाल उठाये थे वही सवाल बार-बार इस संग्रह की कविताओं में आते हैं. संग्रह में उत्पीड़क तो है ही उत्पीड़ित भी कहीं गायब नहीं है. वह उत्पीड़क के साथ संवाद भी बना रहा है और उससे वक्त जरूरत आँखे चार भी कर रहा है.
‘जातियों के कपड़े’ ‘कैसा विकास’ ‘मंजिले और रास्ते’ ‘महान देश’ ‘सूकर दर्शन’ ‘कविता कलाविहीन’ ‘दलित मुस्कान’ ‘चमड़ा’ ‘धोबी’ ‘जागरथ’ ‘अछूत कविता’ ‘प्यार-पैसा-जाति’ ‘कला’ ‘पडाव के पार’ ‘सुन मनुवादी’ ‘चुप्पी’ आदि ऐसी कवितायें इस संग्रह में हैं दो दलित साहित्य की पीड़ा को ही उद्भासित नहीं करती बल्कि उसके फलक को संवेदना के धरातल पर विस्तारित करती हैं. आशाराम जागरथ जानते हैं कि कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं, एक प्रतिरोध है. वह अपने समय से ठीक ठीक लड़ती और मुटभेड करती है. वह चिरयुवा है. हर कविता अपने समय में समकालीन होती है. वह तादात्म्य का नाम है. समय के साथ ही कविता का व्याकरण भी बदलता है, भाषा, भाव, संवेदना में नई अनुभूति आती है. बकौल धूमिल – कभी कभी उसे भाषा में आदमी होने की तमीज मान लिया जाता है. जागरथ जानते हैं कि कविता है ही ऐसी चीज जिसे भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल होता है. जागरथ हमें मुक्ति के उसी पागलपन तक ले जाना चाहते हैं.

    कविता कलाविहीन का यह कवि जानता है कि किसी साहित्य का स्थापित सौन्दर्यशास्त्र न अचानक बना होता है, न एक दिन में वह बदल ही सकता है; परन्तु इतना तय है कि जैसे-जैसे रचनाशीलता का ताना-बाना बदलता जाएगा, वैसे-वैसे उसके सौन्दर्यशास्त्र में परिवर्तन की आवश्यकता स्वत: रेखांकित होती जाएगी. अनगढ़ता भी प्रतिमान बन सकती है एक दिन. कभी सिर्फ गोरे वर्ण को सौन्दर्य का प्रतिमान माना जाता था पर आज सौन्दर्य का वही मानक नहीं है. आशाराम अपनी कविताओं में हमें यही विश्वास दिलाते हैं कि अब वह समय आ गया है जब सौन्दर्य के प्रतिमान बदल जाने को उत्साहित हैं. ‘चमारिन गाय’ ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कविता है. वह पाठक के पास विमर्श का नया प्रस्थानबिन्दु छोडती है. ‘कला’ नामक अपनी कविता में कवि लिखता है :
       ‘अच्छी है कविता/कलाविहीन होकर भी/ उस कला से जो रहती है लीन / कविताओं में/ बदलाव नहीं करती / जिसमें धार नहीं होती/ जो बदलाव करती है और/ जिसमें धार होती है / जरूरत नहीं उसे कला की/ काफी है कविता कलाविहीन/ भरने के लिए रंग / बदरंग समाज में/ देने के लिए सूनी आँखों को / सम-सम्यक / और सार्थक दृष्टि’
                                                (कला, कविता कलाविहीन, आशाराम जागरथ, पृष्ठ 114)
कुल मिलाकर यह पठनीय संग्रह है. आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता के बरक्स इन कविताओं में देशजता की चमक है. कई शब्द अपनी स्थानीयता के कारण विशेष अर्थ देते दिखाई देते हैं. कवि जिन बदलाओं की इच्छा से इन कविताओं को रच रहा है वह स्वयं की मुक्ति नहीं अपितु एक समुदाय की मुक्ति की साधना से युक्त है. इन कविताओं में दशरथ मांझी की तरह असमानताओं का पहाड़ खोद डालने का साहस है. कवि को उनकी अच्छी कविताओं के लिए बधाई. निश्चय ही ये कवितायें इक्कीसवीं सदी को राह दिखाने वाली कवितायें साबित होंगी.

पुस्तक का नाम : कविता कलाविहीन
प्रकाशक : कोशल पब्लिशिंग हाउस, फैजाबाद
पुस्तक का मूल्य : 350 रूपये
कुल पृष्ठ : 176
समीक्षक :
डॉ. कर्मानंद आर्य

सहायक प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया बिहार 

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