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अप्रैल 19, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जेल की खिड़कियाँ

यह घर की कोठरी नहीं है  जेल की खिड़कियाँ हैं भद्दी और खुरदरी  लोहे की हंसुलियाँ  रेत रही हैं गला  अधेड़ उम्र की बंदिनी  अपनी कमीजें फाड़ रही है  नाखूनों और दांतों के जरिये  खून की कुछ बूंदें धरती तक पहुँच रही हैं  बांस के तने पर लगा हुआ खून  टपक रहा है धीरे-धीरे  घुटनों की रोसनाई  अंगूठों तक पहुँच गई है  स्मृतियों में एक बल्ब बुझ गया है  सियाह रात देखकर  अब आदत हो गई है  लहू से लथपथ देहें खास नहीं लगती हैं उसे  बस लिजलिजापन महसूस होता है  अभी उसकी स्मृतियों में है दादी वाला चाँद  कितकित वाली गिट्टी पने वाली रोटियां  वह अपराधी नहीं है  उसने अपराध स्वीकार कर लिया है  जब उसके हाथ सयाने हो जायेंगे  ये खिड़कियाँ अचानक टूट जायेंगी  भरभरा कर गिर पड़ेगी इंटें  सुर्खी-चूना अपने आप अलग हो जायेगा  जब कमीजें फट जायेगी  सच सामने आ जायेगा जगह-जगह घायल देह की किरचें  नंगी आँखों में छुप जाएगी  उसे पुलिस की देहें भी याद नहीं रहेंगी  अंधे जज की बातें भी...