जेल की खिड़कियाँ



यह घर की कोठरी नहीं है 
जेल की खिड़कियाँ हैं भद्दी और खुरदरी 

लोहे की हंसुलियाँ 
रेत रही हैं गला 

अधेड़ उम्र की बंदिनी 
अपनी कमीजें फाड़ रही है 
नाखूनों और दांतों के जरिये 

खून की कुछ बूंदें धरती तक पहुँच रही हैं 
बांस के तने पर लगा हुआ खून 
टपक रहा है धीरे-धीरे 

घुटनों की रोसनाई 
अंगूठों तक पहुँच गई है 

स्मृतियों में एक बल्ब बुझ गया है 
सियाह रात देखकर 

अब आदत हो गई है 
लहू से लथपथ देहें खास नहीं लगती हैं उसे 
बस लिजलिजापन महसूस होता है 

अभी उसकी स्मृतियों में है दादी वाला चाँद 
कितकित वाली गिट्टी
पने वाली रोटियां 

वह अपराधी नहीं है 
उसने अपराध स्वीकार कर लिया है 

जब उसके हाथ सयाने हो जायेंगे 
ये खिड़कियाँ अचानक टूट जायेंगी 

भरभरा कर गिर पड़ेगी इंटें 
सुर्खी-चूना अपने आप अलग हो जायेगा 

जब कमीजें फट जायेगी 
सच सामने आ जायेगा
जगह-जगह घायल देह की किरचें 
नंगी आँखों में छुप जाएगी 

उसे पुलिस की देहें भी याद नहीं रहेंगी 
अंधे जज की बातें भी 

अँधेरे में खुलने वाली खिड़कियाँ
उसे दीवारों से बाहर फ़ेंक देंगी 
अचानक उसका चेहरा लाल से पीला पड जाएगा 

वह महसूस करेगी
जेल की दीवारें बूढी हो गई हैं 
बहुत बूढी ...........................

डॉ.कर्मानंद आर्य

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