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मार्च 29, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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क्या आप मनोरंजन ब्यापारी को जानते हैं “मैं एक दलित लेखक हूँ. मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं हत्याएं नहीं कर सकता. यदि मुझे हत्या का अधिकार हो तो लिखना छोड़ दूँ.” इससे पहले हमने कभी नहीं सुना, देखा, जाना था उनका नाम. पर वे सच में जादूगर हैं. वे किसी उपन्यास के नायक से कम नहीं हैं. उनकी बांग्ला मिश्रित हिंदी ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. अवसर था प्रथम  “पटना लिटरेचर फेस्टिवल” का उन्हें सुना तो फिर उठने का मन नहीं हुआ. वैसे वे एक दलित लेखक के प्रतिनिधि के तौर पर वहाँ आमंत्रित  थे. जब उनका परिचय दलित साहित्य के उन्नायक डॉ.बजरंग बिहारी तिवारी जी ने कराया तो लगा उन्होंने हीरा खोज लिया है. उनकी खोजी वृत्ति ने हम हिंदी वालों का बहुत उपकार किया. कथादेश में बजरंग बिहारी तिवारी ने उस ‘ दलित ’ लेखक के ऊपर पहले एक बहुत सुंदर लेख लिखा था. यह हम हिंदी वालों से उस बांग्ला लेखक का पहला परिचय , जिसका जीवन ही साहित्य है. स्वाध्याय से शिक्षा अर्जित करने वाले मनोरंजन ब्यापारी रिक्शा चलाते थे , कि वे एक स्कूल में ...

मगहर : घायल देश के सिपाही

मगहर : घायल देश के सिपाही : घायल देश के सिपाही (इरोम शर्मिला के लिए : जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है) लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है ...

कोई जालिम भूख उन्हें खा जायेगी!

कोई जालिम भूख उन्हें खा जायेगी! देश के उस हिस्से में जहाँ मैं बड़ा हुआ चीलें मंडरा रहीं हैं घरों के आस-पास वे चीलें जिनके पंजे लोहे से बने हैं जिनके चोंचो की धार में                       समा गया है सारा मुल्क   कुरकुरे की पन्नियों से ज्यादा चमकदार बोतलबंद सोडे से ज्यादा मारक हैं उनकी निगाहें   सुमुखी विज्ञापन वाली चीलें, निर्देशित कर रही हैं फ़िल्में, कला, आलोचना, नामवरी दहशत सकुनियों के देश में समझना होगा कब और कहाँ लुटने वाला तंत्र खड़ा है   वे चीलें आम चीलें नहीं हैं उनका कद अरब के गिद्धों से बड़ा है रवायती सांप और चीलें अब दोस्त हैं सावन की यह दोस्ती गुल लुटने तक कायम है बलात्कारी देश में सांप की आँखों में चमक तेज है चमक तेज है कि चूहे घूम रहे हैं दर-बदर उनके अपने खेत तो नहीं उन्हें मरने यहीं आना है यही बिल्लियों के मजबूत पंजों में    असंतुष्ट आग तेज जल रही है धीरे-धीरे ठंडी हो जायेगी ...

मैं लिखता क्यों हूँ

मैं लिखता क्यों हूँ एक सडसी है मेरे हाथों में तपा रहा हूँ गर्म लोहा लोहे पर चोट करूँगा ताकि उसे कलम बना सकूँ बना सकूँ माँ के हाथ में रक्खी हुई बीड़ी   पिता के हाथों में रक्खा हुआ फावड़ा लोहा जो मेरी किताबों में भरा पड़ा है लोहा जो मेरी अस्थियों में बहता है लोहा जो मेरी सोच है कोई एक और ठंडा लोहा मुड़ता नहीं टूट जाती हैं उसकी किरचे शिकायत नहीं   किसी बेरहम लोहे को खालिस पीटने से क्या होगा फौलाद होने तक उसे गल जाने दो उसके गलने से कईयों की जिन्दगी आकार लेगी   जब लोहे की सांकलें इतनी मजबूत हों कि वंचित उससे बाहर न आ पाए तो काटी जा सकती हैं अपराधी सांकलें   जब तुम्हारी कलमें लोहे की हों तो तुम आत्मकथा लिख सकते हो तुम्हारी आत्मकथा में हो सकता है लोहे का दुःख किसी जंग लगे लोहे की तरह तुम्हारी प्रतिभायें गला दी जायेंगी तुम्हें कहा जाएगा तुम लीटर को मीटर में नहीं माप सकते दोस्तों लोहे की प्रेरणा से लिखता हूँ कविता क्योंकि लोहे की तलवारों से मैं शोषक का गला नहीं रेत सकता कविता लिख सकता हूँ 

घायल देश के सिपाही

घायल देश के सिपाही (इरोम शर्मिला के लिए : जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है) लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है एक सादे समझौते के खिलाफ कि “क्या फर्क पड़ता है” मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों घोड़े की टाप से भी खतरनाक मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ इसलिए लड़ रही हूँ लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ मेरे परंपरागत धनुष-बाण बाजार में सबकी कीमत तय है मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है मैं वतन की तलाश कर रही हूँ जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ   तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे   हमारी हरी देहों का दोहन शिकारी को बहुत लुभाता है कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थि...

घायल देश के सिपाही

घायल देश के सिपाही (इरोम शर्मिला के लिए : जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है) लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है एक सादे समझौते के खिलाफ कि “क्या फर्क पड़ता है” मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों घोड़े की टाप से भी खतरनाक मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ इसलिए लड़ रही हूँ लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ मेरे परंपरागत धनुष-बाण बाजार में सबकी कीमत तय है मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है मैं वतन की तलाश कर रही हूँ जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ   तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे   हमारी हरी देहों का दोहन शिकारी को बहुत लुभाता है कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थि...