ओ दलित बेटियों

ओ दलित बेटियों

ओ सांवली धरती
दो उभारों के बीच चलने वाली तुम्हारी नर्म सांसे
पछाह धान का चिउरा कूटती जवान लडकियों की साँसों से
थोड़ा तेज धड़क रही हैं

तुम्हारी चौहद्दी के भीतर
कुछ युवा लड़के कर रहें हैं तुम्हारी रखवाली
मासूम कल्पना वाले देश में
तुम्हारे लिए खरीद रहें हैं सिगार-पटार
जुटा रहें हैं दूसरे साधन

एक तुम हो अनुभूतियों के आकाश में
दही जमा रही हो
मद्धम हवा सी लहरा रही हो फुनगियों पर ओढ़नी
नथुनी पर नचा रही हो गोल-गोल चाहतें

तुम असुरक्षा का कवच ओढ़े
घूम रही हो नंगी सड़कों, खुले बाजारों, बंद गलियों भीतर  
बहेलिये के जाल को नाखूनों से काट रही हो

वह जाल जो तुम्हें जिन्दा रखता तो है
जीने का आकाश नहीं देता

दूसरी परंपरा की खोज में
तुम वर्जनाएं तोड़ रही हो
तुम टूट रही हो वर्जनाओ सी

तुम दूधो नहाओ पूतो फलो की उतरन उतार रही हो
संस्कार से चिढ़-रूठ रही हो भीतर-भीतर

एक अभ्र दमक रहा है माथे पर
क्या-क्या कर रही हो आजकल 

तुमने कभी सोचा सूखे तपे पहाड़ों का दुःख

मेरे जिस्म से निकलने वाली नदियों
समय के क्रूर पत्थरों
अस्मिता की अँधेरी गलियों में भटकने वाली दलित आत्माओं
बाहर निकलो

उन्होंने हमें सच का प्रलोभन दिया है
छीना है हमारा स्वत्व, हमारा घर, हमारे हरे-भरे खेत  
हमारे लहू में नमक की मात्रा बढ़ा दी है
गला दी हैं हमारी कमजोर अस्थियाँ

सिर्फ मौत का समझौता करते हुए
बेच दिया है रोटी का एक टुकड़ा
बेटी के लिए
रोटी का वही टुकड़ा मेरे जीवन का अंतिम उद्देश्य हो गया है

हमने कभी नहीं सोचा प्रेम में नयापन
कभी सौन्दर्यबोध की कविता नहीं रची भाषा में
ऊंट की पीठ पर कविता लिखते हुए
गुलाब के दावे को सुर्ख किया है हमने
हम अपनी बदबूदार गलियों में भटकते रहे हैं दर-दर
करते रहे हैं माई-बाप

हम असंतुष्ट कभी नहीं रहे
धर्म और अहिंसा के पेंडुलम में भकाते हुए तुमने
भेज दिया घर में शमशानी शांति
तुमने हमारा मरणभोज खाया है पीढ़ियों से
जूठन खिलाया फेंका हुआ

नए सूरज का उदय हुआ है पूरब में
हम राजा से मांग रहे हैं अपनी खोई हुई मुहरें

यह अस्मिता या अस्तित्व की लड़ाई भर नहीं
हम टूटी मूर्तियों में खोज रहे हैं अपना इतिहास
हमने भूख को मरने के लिए छोड़ दिया है जलते जंगल भीतर
अब हम रोटी की भीख नहीं मांगेंगे
सच का निवाला छीन खायेंगे 

समय दुहरा रहा है खुदको
मेरा भोग हुआ दुःख भोगेंगी तुम्हारी पीढ़िया
शुरुवात हो गई है
तुम खाने लगे हो मरे गोरु का मांस
जिसे तुम गन्दी निगाह से देखते थे
अपना रहे हो वही संस्कृति  

आंधिया शांत हो गई हैं
आज हम रेत के ढूहे नहीं हैं
जगते हुए पहाड़ हैं
हमारी कंदराओं से जन्म रहीं है विकास की नदियाँ
हमारे खून के रंगों से खिल रहें हैं बनौधे लाल टेसू
बनाश बिखर रहें हैं बेटी के सपनों भीतर

देखना एक दिन परिंदे फडफड़ायेंगे अपने पंख
आकाशवाणी होगी
तुम विजयी हुए हो पार्थ!
क्या तुमने कभी सोचा है
सूखे तपे पहाड़ों का दुःख 

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