अयोध्या और मगहर के बीच
अयोध्या और मगहर के बीच फैली है एक काली रेखा
शुष्क किन्तु बजबजाती हुई
जैसी वैचारिक दूरी है मड़ई चमार और सुरजन पांडे के अहाते बीच
घिन और बदबू से सराबोर
दोनों की संस्कृतियों और सपनों में बुद्धिजीवियों सा तेवर
दोनों की कूट रेखाओं को पढ़ती हैं क्रूर सरकारें
समय और सन्दर्भ के अनुसार सूखते फफोले और
लपटों में जलती जिन्दा देहों की तरह राजनीति
... करवट बैठती है अयोध्या में
प्रधानमंत्री का जुमला छोड़ता
राजाओं के पासे में अयोध्या फिर-फिर प्रासंगिक रहा है
चुनाओं के आने तक, चुनाओं के बाद
निरीहों को फासी तक ले जाता हुआ
शहर को शवदाह बनता हुआ, खुद पर थूकता हुआ
पत्थरों में कैद रामलला, समझते हैं राजनीति का व्याकरण
रोते हैं कभी-कभी अपने कृत कर्मों पर
बूढी आस्थाओं के डूब जाने से पहले
थरथराती है दीपक की लौ भीत एवं मद्धम
दूरियों को पाटने वाली राहें, पोंछती है पसीना
थके हुए पथिक डरते हुए भागते हैं
छांह बरसाती धूप के लिए ढूढ़ते हुए आसरा
डुगडुगी वाले बजाते हैं रौनक
सुखी हैं अयोध्यावासी खबर फैली है जाखन मुहल्ले में
अयोध्या के घाटों पर सर्कस करते पंडों की ध्वनि गूंजती है
काया का मार्जन करती निगाहें भोग में योग देखती हैं
मंत्र फूकते हुए सरयू रोती हैं खुद पर
भक्ति बेचती थुलथुल दुकाने, अट्टहास करती है
मूर्ख जनता की भोली आस्था पर
मगर शांत पड़ा है मगहर
वहां की जनता एक बदहवास नदी को छोड़कर
नहाती है कुवानों, मलती है उस की धूल
जैसे कबीर आज भी प्रासंगिक हों सनातन मगहर में
फकीरी का वृक्ष पाले
तिल-तिल मरने का ख्वाब सजाये हुए
वहां की प्रजा भीतर
मगहर चर्चा में नहीं रहता
खुद से डरा-डरा पहुँचता है राजधानी
एक डरे हुए दलित की तरह,
जिसका खेत छीन लिया है दबंगों ने
सवर्ण थाने में जिसकी रपट नहीं लिखता दरोगा
उल्टा चोरी के आरोप में कैद करता है उसकी आत्मा
मगहर अयोध्या के आइने में अपना अक्स देखता है
जैसे दाढ़ी का सफ़ेद बाल देखता है बूढायुवा
शुष्क किन्तु बजबजाती हुई
जैसी वैचारिक दूरी है मड़ई चमार और सुरजन पांडे के अहाते बीच
घिन और बदबू से सराबोर
दोनों की संस्कृतियों और सपनों में बुद्धिजीवियों सा तेवर
दोनों की कूट रेखाओं को पढ़ती हैं क्रूर सरकारें
समय और सन्दर्भ के अनुसार सूखते फफोले और
लपटों में जलती जिन्दा देहों की तरह राजनीति
... करवट बैठती है अयोध्या में
प्रधानमंत्री का जुमला छोड़ता
राजाओं के पासे में अयोध्या फिर-फिर प्रासंगिक रहा है
चुनाओं के आने तक, चुनाओं के बाद
निरीहों को फासी तक ले जाता हुआ
शहर को शवदाह बनता हुआ, खुद पर थूकता हुआ
पत्थरों में कैद रामलला, समझते हैं राजनीति का व्याकरण
रोते हैं कभी-कभी अपने कृत कर्मों पर
बूढी आस्थाओं के डूब जाने से पहले
थरथराती है दीपक की लौ भीत एवं मद्धम
दूरियों को पाटने वाली राहें, पोंछती है पसीना
थके हुए पथिक डरते हुए भागते हैं
छांह बरसाती धूप के लिए ढूढ़ते हुए आसरा
डुगडुगी वाले बजाते हैं रौनक
सुखी हैं अयोध्यावासी खबर फैली है जाखन मुहल्ले में
अयोध्या के घाटों पर सर्कस करते पंडों की ध्वनि गूंजती है
काया का मार्जन करती निगाहें भोग में योग देखती हैं
मंत्र फूकते हुए सरयू रोती हैं खुद पर
भक्ति बेचती थुलथुल दुकाने, अट्टहास करती है
मूर्ख जनता की भोली आस्था पर
मगर शांत पड़ा है मगहर
वहां की जनता एक बदहवास नदी को छोड़कर
नहाती है कुवानों, मलती है उस की धूल
जैसे कबीर आज भी प्रासंगिक हों सनातन मगहर में
फकीरी का वृक्ष पाले
तिल-तिल मरने का ख्वाब सजाये हुए
वहां की प्रजा भीतर
मगहर चर्चा में नहीं रहता
खुद से डरा-डरा पहुँचता है राजधानी
एक डरे हुए दलित की तरह,
जिसका खेत छीन लिया है दबंगों ने
सवर्ण थाने में जिसकी रपट नहीं लिखता दरोगा
उल्टा चोरी के आरोप में कैद करता है उसकी आत्मा
मगहर अयोध्या के आइने में अपना अक्स देखता है
जैसे दाढ़ी का सफ़ेद बाल देखता है बूढायुवा
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