कर्मानंद आर्य की कवितायेँ
मुसहरी : आरक्षण मेरे लिए नहीं
…………………………………………………………………………
पटना:
पटना:
गोलंबरों वाले इस सभ्य शहर में
ठीक सड़क के बीचो बीच
ठीक सड़क के बीचो बीच
मैंने गाड़ दिया है एक पत्थर
पत्थर बनेगा पेड़
पेड़ों से फूटेंगी डालियाँ
अनगिनत फूल बरसेंगे
झोपड़ी के गौने पर
खुश हो जायेगी जवान हवेली
बच्चे :
पत्थर बनेगा पेड़
पेड़ों से फूटेंगी डालियाँ
अनगिनत फूल बरसेंगे
झोपड़ी के गौने पर
खुश हो जायेगी जवान हवेली
बच्चे :
मुसहर
टोली का एक फटी चड्ढी वाला लड़का
अलसुबह रोटियों का कूड़ा उठाएगा
पानी पीकर स्कूल चला जाएगा
“देश का भविष्य” पीले चावल की तलाश में
सर्वशिक्षा अभियान की पतंगे उड़ायेगा
खेल कूद कर घर वापस आ जायेगा
बेटियां :
अलसुबह रोटियों का कूड़ा उठाएगा
पानी पीकर स्कूल चला जाएगा
“देश का भविष्य” पीले चावल की तलाश में
सर्वशिक्षा अभियान की पतंगे उड़ायेगा
खेल कूद कर घर वापस आ जायेगा
बेटियां :
एक
मुरझाई हवा गुजरेगी उनके आस पास
तेज मोबाइल की अश्लील धुन और
शराब के भभके से अंट जाएगा मोहल्ला
कच्ची लड़कियों की देह उघारकर पूछेगा दरोगा
बिना दीवारों के घर पर कैसे चढ़ता है नशा
ठीक उसी शाम बिना दहेज़ की शादी तय हो जायेगी
माँयें :
रिपोर्ट बताती है
कई पीढ़ियों से वे बिना टीवी वाले घर में
सिर्फ मनोरंजन का साधन हैं
दलित और स्त्री होने की कीमत चुकाकर
कोठे और कोठी के लिए
ख़त्म हो जानी है उनकी गुमनाम जिन्दगी
पिता :
एक अलसाई सुबह में
कंकडबाग तक वह दीवारों पर करेगा रंगरोगन
बिजली के खम्भों पर तार बांधेगा
लोहा गाड़ी चुचुवाते हुए करेगा गाँधी मैदान की सफाई
शाम महुआ माई की शरण में
उतारेगा दिनभर की थकान
पुनः पटना :
आज बिहार दिवस है
उसे बांस बाँधने जाना है
तेज मोबाइल की अश्लील धुन और
शराब के भभके से अंट जाएगा मोहल्ला
कच्ची लड़कियों की देह उघारकर पूछेगा दरोगा
बिना दीवारों के घर पर कैसे चढ़ता है नशा
ठीक उसी शाम बिना दहेज़ की शादी तय हो जायेगी
माँयें :
रिपोर्ट बताती है
कई पीढ़ियों से वे बिना टीवी वाले घर में
सिर्फ मनोरंजन का साधन हैं
दलित और स्त्री होने की कीमत चुकाकर
कोठे और कोठी के लिए
ख़त्म हो जानी है उनकी गुमनाम जिन्दगी
पिता :
एक अलसाई सुबह में
कंकडबाग तक वह दीवारों पर करेगा रंगरोगन
बिजली के खम्भों पर तार बांधेगा
लोहा गाड़ी चुचुवाते हुए करेगा गाँधी मैदान की सफाई
शाम महुआ माई की शरण में
उतारेगा दिनभर की थकान
पुनः पटना :
आज बिहार दिवस है
उसे बांस बाँधने जाना है
पिछड़ गए शब्द
..............................................................
आओ उन शब्दों को नया अर्थ दें जो पिछड़ गए
अस्मिताओं का रोना रोते हुए
चेचन्या की पहाड़ियों पर रक्खे गए शब्द
तोप के गोले से तेज बजते थे
केवल कुछ रूहें रोती रही थी अपनी भाषा में
ओसामा के टेप आने बंद हो गए
सद्दाम की आवाजें धरोहर हो गईं
दोस्त और दुश्मन के किले भीतर
इराक, ईरान, अफगान, पाकिस्तान
कहते हैं वे शब्द अमेरिका की यात्रा से लौट आये हैं
कहते हैं वे शब्द अमेरिका की यात्रा से लौट आये हैं
अपने देश, घायल सिपाही की तरह
वे शब्द ही तो हैं जो बचे हुए हैं
पहाड़ी स्त्री के भीतर
जंगल बचाने के लिए
पति का खाना लाने के लिए
समय बदला है कोयले के भीतर समाये हुए शब्द
धू-धू कर जल रहे हैं
कोई कहता है सूरज डूब रहा है
मैं कहता हूँ वह सूरज नहीं
एक आदिवासी पुरुष है
कोई बदल रहा है उसे
संसद से सड़क तक बोली जानेवाली भाषा की तरह
शब्दों के अर्थ बदल गए हैं
भाई, मामू, जुगाड़, सामान
न जाने कब और कैसे व्यवहार में आये
बोलने वाले को बागी कहा जा रहा है
न बोलने वाले को वफादार
अब वफादारी कुत्ते वाली नहीं रही
एक भाषा जो इरोम समझाती है
एक भाषा जो शीतल गाती है
एक भाषा जो आँख से आँख तक जाती है
वह भाषा जो आँखों से आँखों के बीच डर पैदा करती
है
दिल्ली की सड़कों पर
आज जब बोली, भाषा, शब्द अपना अर्थ खो रहे हैं
पिछड़े होने का नया अर्थ शुरू हो रहा है
वसंतसेना
.............................
नायकों की एक विशाल पंक्ति
बाहर खड़ी है
आज के दिन भी तुम उदास हो वसंतसेना
कितने बिस्मिल्लाह खड़े हैं
अपनी शहनाइयों के साथ
कितने तानसेन गा रहे हैं
सधे सुरों का गीत
अपने सधे क़दमों से
नृत्य की मुद्रा में आज है
‘दाखनिता कुल’
उल्लास का मद अहा
चोर, गणिका, गरीब, ब्राह्मण, दासी, नाई
हर आदमी आज है नायक
चारुदत्त आये हैं वसंतसेना
फिर भी हो तुम उदास
वसंतसेना निर्व्याज नही जायेगा तुम्हारा प्रेम
प्रकृति उत्तम है
उदास क्यों होती हो ?
क्या गणिकाओं का विवाह नहीं होता वसंतसेना?
.............................
नायकों की एक विशाल पंक्ति
बाहर खड़ी है
आज के दिन भी तुम उदास हो वसंतसेना
कितने बिस्मिल्लाह खड़े हैं
अपनी शहनाइयों के साथ
कितने तानसेन गा रहे हैं
सधे सुरों का गीत
अपने सधे क़दमों से
नृत्य की मुद्रा में आज है
‘दाखनिता कुल’
उल्लास का मद अहा
चोर, गणिका, गरीब, ब्राह्मण, दासी, नाई
हर आदमी आज है नायक
चारुदत्त आये हैं वसंतसेना
फिर भी हो तुम उदास
वसंतसेना निर्व्याज नही जायेगा तुम्हारा प्रेम
प्रकृति उत्तम है
उदास क्यों होती हो ?
क्या गणिकाओं का विवाह नहीं होता वसंतसेना?
मंदिर की सीढ़ियाँ
...............................................
वक्त बेवक्त यहाँ
से गुजरता हूँ
तो पिता के कहे
वे वचन याद आ जाते हैं
बेटा भगवान् किसी
के नहीं
वे अंधों के
होंगे
बहरों के होंगे
आँख वालों के तो
कभी नहीं हो सकते
जिसे दिखाई देता
है उसे सुनाई नहीं देता
जिन्हें सुनाई
देता है वह बोल नहीं सकता
जो बोल नहीं सकता
वह आवाज क्या
उठाएगा बेटा !
पिता कहते हैं
इन सीढियों की
सफाई नहीं हुई कभी
गंदगी का अम्बार
है यहाँ
इसी रास्ते आता
होगा वह काला धन
जिसके कारण मारे
गए थे पिछले महंत
कोषागार में
होंगे बहुत कछुए
बहुत हंस, बहुत चील
और होगा फैला हुआ
मगरमच्छ
वहां एक नदी होगी
बेचैन
वहां एक द्वीप
होगा अकेला
वहां एक विषहीन
सांप होगा
देखना एक दिन
इन्हीं सीढ़ियों
से लौटकर आयेगा
मंदिर में जमा
काला धन
पुजारी स्वयं
बांटेंगे
इस मंदिर की एक
एक ईंट
देखना इन सीढ़ियों
पर एक दिन
भूखे लोग तलवार
लिए
मत्था टेकने
आयेंगे
मत्स्यगंधा
......................................
एक:
जातियों का बंधन
टूटता है
तुम्हारे प्रणय
के स्पर्श से
जिसे तोड़ नहीं
पायी
पवित्र माने जाने
वाली ऋचायें
उसे तोड़ दिया
रूप की आकांक्षा
ने
तृषा जागती है
देव, गंधर्व, कोल, किरात
सब लोटते हैं
तुम्हारे चरणों में
अरे यह क्या ?
तुम समय की भाषा पढ़ने
लगी हो
तुममें भी आ गए
हैं
उच्च वर्णस्थ
स्त्री के भाव
अच्छा है
तुम्हारा यह निर्णय भी
तुम उसी से विवाह
करोगी
जो देव, गन्धर्व, कोल, किरात नहीं
तुम्हारी जाति का
होकर रहेगा
मत्स्यगंधा
.........................................
दो:
तुम्हारा पति आज
मछलियाँ पकड़ने
नहीं गया
उसे सता रही थी
अद्भुत प्यास
वह तुम्हारे
आसपास मंडराता रहा
यह बसंत की
दोपहरी नहीं है
जब गाती है कोयल
कि... कि...
कि....
करके दौड़ती है
गिलहरी
वह आज तुम्हें
गिलहरी की तरह
दौड़ाना चाहता है
रेंगती रहो जल, थल, आकाश
आज जाल के साथ
नहीं
तुम्हारे साथ
फसेंगा
उसका प्रथम प्रणय
गीत
हर दिन काम
का
हर दिन प्रेम का
होना चाहिए!
‘होना चाहिए न मत्स्यगंधा’ !!!!!!
मैं लाशें ढूंड रहा हूँ
.................................................
कोई भंगी नहीं होना चाहता, मैं भी नहीं
कोई आना नहीं चाहता इन गन्दी बंद गलियों में, मैं भी नहीं
मेहतरों का टोला है बाबू
आना ही पड़ता है हमारे पूर्वजों की लाशें पड़ी हुई है यहाँ
घिन अच्छी चीज नहीं है
गंदगी अच्छी चीज नहीं है
नफरत अच्छी चीज नहीं है
फिर अच्छी चीज क्या होती है बाबू
सोचकर बताइये न!
नहाना, थूकना, गंदगी फैलाना
गुटखा तम्बाकू खाना, ताम्बूल चबाना, थूक देना कहीं भी
क्या यह हमारे संस्कार नहीं
क्या हम अपने बच्चे को सिखाते नहीं ऐसा करना
पशु पालना और मरने पर फ़ेंक देना सरी राह
कि उठाकर ले जायेंगे नगरपालिका वाले
हम ही तो हैं बाबू नगर पालिका के कर्मचारी
बाबू मुझे भी गंदगी से प्यार नहीं
घिन मुझे भी आती है
मुझे भी नफरत होती है
मुझे भी आता है गुस्सा
क्या करूँ बाबू !
इसी गंदगी में ढूंड रहा हूँ पूर्वजों की लाशें
आना ही पड़ता है यहाँ
.................................................
कोई भंगी नहीं होना चाहता, मैं भी नहीं
कोई आना नहीं चाहता इन गन्दी बंद गलियों में, मैं भी नहीं
मेहतरों का टोला है बाबू
आना ही पड़ता है हमारे पूर्वजों की लाशें पड़ी हुई है यहाँ
घिन अच्छी चीज नहीं है
गंदगी अच्छी चीज नहीं है
नफरत अच्छी चीज नहीं है
फिर अच्छी चीज क्या होती है बाबू
सोचकर बताइये न!
नहाना, थूकना, गंदगी फैलाना
गुटखा तम्बाकू खाना, ताम्बूल चबाना, थूक देना कहीं भी
क्या यह हमारे संस्कार नहीं
क्या हम अपने बच्चे को सिखाते नहीं ऐसा करना
पशु पालना और मरने पर फ़ेंक देना सरी राह
कि उठाकर ले जायेंगे नगरपालिका वाले
हम ही तो हैं बाबू नगर पालिका के कर्मचारी
बाबू मुझे भी गंदगी से प्यार नहीं
घिन मुझे भी आती है
मुझे भी नफरत होती है
मुझे भी आता है गुस्सा
क्या करूँ बाबू !
इसी गंदगी में ढूंड रहा हूँ पूर्वजों की लाशें
आना ही पड़ता है यहाँ
प्राकृतिक न्याय
..........................................
न्याय होने और किये जाने के बीच
लाचारी बहुतै कसमसायेगी
कमजोर देहिया के भीतर
बाजुओं की जकड़न में कैद कउनो हिरनी
अंततः पिज्जे का हिस्सा हो सज जाएगी
बाजार के सामने
कउनो उसे पुचकारेगा
कउनो उसे दुलार लेगा
कउनो एहसान की कीमत वसूलेगा
कउनो बहुत अपनापन दिखायेगा
अंततः
बहुत नीली-नीली आँख
सुडौल वक्ष, मदभरी चितवन, मस्त चाल
एक बार में ही अपना बना लेने की अदा
दो जांघों के बीच
सिमटकर ख़त्म हो जाएगी
कउन सुनेगा साहिब
फरियाद बुरी चीज है
जज सबूतों में जिन्दगी गुजार देगा
पुलिस तफ्तीश में
एक लम्बे इंतजार में हम तुम भी गुजर जायेंगे
जज के ऊपर नहीं चलेगा हत्या का मुकदमा
पुलिस को सस्पेंड नहीं किया जायेगा
आपका तो कुछ कहना नहीं
प्राकृतिक न्याय
ऐसे ही तो होता है साहिब
..........................................
न्याय होने और किये जाने के बीच
लाचारी बहुतै कसमसायेगी
कमजोर देहिया के भीतर
बाजुओं की जकड़न में कैद कउनो हिरनी
अंततः पिज्जे का हिस्सा हो सज जाएगी
बाजार के सामने
कउनो उसे पुचकारेगा
कउनो उसे दुलार लेगा
कउनो एहसान की कीमत वसूलेगा
कउनो बहुत अपनापन दिखायेगा
अंततः
बहुत नीली-नीली आँख
सुडौल वक्ष, मदभरी चितवन, मस्त चाल
एक बार में ही अपना बना लेने की अदा
दो जांघों के बीच
सिमटकर ख़त्म हो जाएगी
कउन सुनेगा साहिब
फरियाद बुरी चीज है
जज सबूतों में जिन्दगी गुजार देगा
पुलिस तफ्तीश में
एक लम्बे इंतजार में हम तुम भी गुजर जायेंगे
जज के ऊपर नहीं चलेगा हत्या का मुकदमा
पुलिस को सस्पेंड नहीं किया जायेगा
आपका तो कुछ कहना नहीं
प्राकृतिक न्याय
ऐसे ही तो होता है साहिब
रमई राम की बेटी
.........................................................
मुझे केवल मेरे कद से मत नापो
मुझे मत नापो मेरे काले रंग से
मेरे चलने के सलीके से मत नापो
मासिक से नहाई हुई मैं अपवित्र लड़की नहीं हूँ
इतिहास की ओर बढ़ रहे हैं मेरे कदम
मैं सीता नहीं होना चाहती
मैं नहीं होना चाहती सावित्री
मुझे किसी दूसरे जैसा नहीं बनना
जितनी तुम्हें दिखाई देती हूँ
जितना तुम्हें सुनाई देती हूँ
केवल उतनी लम्बी नहीं हूँ मैं
मैं गंदगी से बची हुई सबसे लम्बी नदी हूँ
मैं गंगा नहीं हूँ जमुना नहीं हूँ नहीं हूँ सरस्वती
नाम सोचा जाना चाहिए मेरा
मुझे मत नापो क्योंकि गहराई बढ़ रही है धीरे-धीरे अंतराल की
समुद्र और गहरे हो रहे हैं
और गहरा हो रहा हैं गुस्सा मेरी धमनियों में
पुरुष लुप्तप्राय हैं
घाटी में फंसे हुए सिपाहियों से कहो
अब दलिताएं तुम्हारी सल्तनत नहीं
नाजिम हिकमत से कहो वे लिखें मेरी दास्तान
सुशीला भोतमंगे से कहो
तुम्हें न्याय मिलेगा मेरी बहन
कबीर कला मंच जिन्दा है
डॉक्टर, वकील, अध्यापक से कह दो
समय के साथ वे बदल लें अपना स्लैबस
जिज्ञासाओं का अनंत संसार मेरे भीतर समाया है
बहुत गहरे विशाल ह्रदय में रहते है कई समुद्र
कई योजन सड़कें ख़त्म नहीं होती लाखों वर्ष चलते हुए भी
मैं पद्मिनी नायिका नहीं हूँ
कि स्तन के लोथड़े और मांस के फैलाव को
जीवन की धुरी मान लूँ
मैं चलती हूँ अपने बहुत छोटे क़दमों से
और जीत लेती हूँ आकाश में तुम्हारी बादशाहत
मैं चलती हूँ निरंतर, मैं नींद में भी चलती हूँ
मैं चलती हूँ क्योंकि मुझे चलने की कीमत पता है
पावों में काटती है जूती, हाथों में चूड़ी
कमर में करधनी काटती है
तुम काटते हो पान का पत्ता थूक के लिए
तुम नाखूनों से काटते रहे मैं काटती रही हूँ नाख़ून
पर अब समय बदल रहा है
लोहा काटेगा लोहा कटेगा
मुझे नहीं खेलना गन्दा खेल
मुझे नहीं खेलनी तुम्हारी होली
मैं जानती हूँ तुमने मुझे जलाया है
मैं राख में बची हुई चिंगारी हूँ
तबसे जल रही हूँ जबसे सीता समा गई धरती की कोख में
सावित्री ने त्याग दिए प्राण
राधा को उसका पति छोड़कर चला गया
मुझे मेरे कद से मत नापो
मैं कल्पना चावला नहीं इरोम की बहन हूँ
रमई राम की बेटी
मैं पद्मिनी नायिका नहीं हूँ
कि स्तन के लोथड़े और मांस के फैलाव को
जीवन की धुरी मान लूँ
.........................................................
मुझे केवल मेरे कद से मत नापो
मुझे मत नापो मेरे काले रंग से
मेरे चलने के सलीके से मत नापो
मासिक से नहाई हुई मैं अपवित्र लड़की नहीं हूँ
इतिहास की ओर बढ़ रहे हैं मेरे कदम
मैं सीता नहीं होना चाहती
मैं नहीं होना चाहती सावित्री
मुझे किसी दूसरे जैसा नहीं बनना
जितनी तुम्हें दिखाई देती हूँ
जितना तुम्हें सुनाई देती हूँ
केवल उतनी लम्बी नहीं हूँ मैं
मैं गंदगी से बची हुई सबसे लम्बी नदी हूँ
मैं गंगा नहीं हूँ जमुना नहीं हूँ नहीं हूँ सरस्वती
नाम सोचा जाना चाहिए मेरा
मुझे मत नापो क्योंकि गहराई बढ़ रही है धीरे-धीरे अंतराल की
समुद्र और गहरे हो रहे हैं
और गहरा हो रहा हैं गुस्सा मेरी धमनियों में
पुरुष लुप्तप्राय हैं
घाटी में फंसे हुए सिपाहियों से कहो
अब दलिताएं तुम्हारी सल्तनत नहीं
नाजिम हिकमत से कहो वे लिखें मेरी दास्तान
सुशीला भोतमंगे से कहो
तुम्हें न्याय मिलेगा मेरी बहन
कबीर कला मंच जिन्दा है
डॉक्टर, वकील, अध्यापक से कह दो
समय के साथ वे बदल लें अपना स्लैबस
जिज्ञासाओं का अनंत संसार मेरे भीतर समाया है
बहुत गहरे विशाल ह्रदय में रहते है कई समुद्र
कई योजन सड़कें ख़त्म नहीं होती लाखों वर्ष चलते हुए भी
मैं पद्मिनी नायिका नहीं हूँ
कि स्तन के लोथड़े और मांस के फैलाव को
जीवन की धुरी मान लूँ
मैं चलती हूँ अपने बहुत छोटे क़दमों से
और जीत लेती हूँ आकाश में तुम्हारी बादशाहत
मैं चलती हूँ निरंतर, मैं नींद में भी चलती हूँ
मैं चलती हूँ क्योंकि मुझे चलने की कीमत पता है
पावों में काटती है जूती, हाथों में चूड़ी
कमर में करधनी काटती है
तुम काटते हो पान का पत्ता थूक के लिए
तुम नाखूनों से काटते रहे मैं काटती रही हूँ नाख़ून
पर अब समय बदल रहा है
लोहा काटेगा लोहा कटेगा
मुझे नहीं खेलना गन्दा खेल
मुझे नहीं खेलनी तुम्हारी होली
मैं जानती हूँ तुमने मुझे जलाया है
मैं राख में बची हुई चिंगारी हूँ
तबसे जल रही हूँ जबसे सीता समा गई धरती की कोख में
सावित्री ने त्याग दिए प्राण
राधा को उसका पति छोड़कर चला गया
मुझे मेरे कद से मत नापो
मैं कल्पना चावला नहीं इरोम की बहन हूँ
रमई राम की बेटी
मैं पद्मिनी नायिका नहीं हूँ
कि स्तन के लोथड़े और मांस के फैलाव को
जीवन की धुरी मान लूँ
बलात्कारी कहाँ से आये थे
द्रोपदी !
...............................................................
अपने ही गले में फँसी हुई
जैसे फड़फड़ाती है बंसी की
मछली
वैसे ही फड़फड़ा रही है
देह
मिट्टी होने का असली अर्थ
पानी होने का असली अर्थ
हवा होने का असली अर्थ
बदल रहा है धीरे धीरे
एक पति, दो पति, तीन पति
चार पति, पांच पति
क्या फर्क पड़ता है
प्लास्टिक की काया के लिए
द्रोपदी चीख रही है
मिट्टी होने के लिए
पानी होने के लिए
हवा होने के लिए
और देह गायब है
परम्परा
.................................................................
मुझे किसी ने
देखा नहीं
किसी ने पूछा
नहीं
जबकि सामने की
प्रथम पंक्ति में
आदमकद के रूप में
बैठा हुआ एक अदना
आदमी
हँसता-हँसता चढ़
गया मंच पर
मैं बैठकर सोचता
रहा
हो सकता है अगली
बार
अगली से अगली बार
मुझे मिले अवसर
बरसों मैं बैठता
रहा आगे
कोई तो देखेगा
मुझे
किसी की तो नजर
पड़ेगी मुझपर
मैं ‘सुदामा’ ही बना रहा
आज सोचता हूँ ‘वंचना’
इसे ही कहते हैं
शायद
कई हजार वर्षों
का निर्वासन है
मेरे भीतर
आज महसूस करता
हूँ
इन बीस सालों
से
लोग जिस मंच के
लिए लड़ रहे हैं
वे मुझसे कहीं
ज्यादा अच्छे हैं
गया में गिद्ध
.............................................
ये गिद्ध पहली सदी में
लौटना चाहते हैं
धर्म की जय जय कार करते हुए
वे बार-बार लौटना चाहते
हैं
इतिहास उन्हें जाने देता
है
तर्पण का मेला लगता है
मूर्खताओं के युग में
इक्कीसवीं सदी की जहालत डूब
जाती है
फिर पहली सदी में
यदि कोई फादर मुक्ति बेचता
तो ये गिद्ध चले जाते यूरोप
उन्हें समझाते हमारे यहाँ
भी है एक वैतरणी नदी
हमने उसी में सब डुबोया
पहले हमने मनुष्य को फिर
धरती को
फिर शैव, शाक्त, बौद्ध
अब हम विज्ञान को डुबाने का
उपक्रम ढूढू रहे हैं
प्रेतयोनि शिला
ब्रह्मयोनि पहाड़ियां
विराजे हुए विष्णु के पाँव
सब लौटना चाहते हैं तीसरी
सदी में
गया में गिद्धों का जमघट
लगातार बढ़ता जाता है
वे कहते हैं दुनिया को फिर
लौटना चाहिए
नरबलि, पशु बलि के युग में
नहीं तो देवता को बंद हो
जायेगी
ताजे मांस की आपूर्ति
देवता के साथ
नए गिद्धों का भोजन बंद हो
जायेगा
पुराना गिद्ध इसलिए परंपरा
में सिखाता है
‘’मांस के लिए हत्याओं की
तरकीब’
‘विज्ञान हमारे लिए सबसे
बड़ी चुनौती’
(दशरथ मांझी को
‘माउंटेन मैन’ कहा जाता है जो बिहार के गया जिले में आज भी अछूत समझी जाने वाली
‘दलित मुसहर’ जाति से थे जो मुख्यतः चूहे खाकर पेट भरती है. आज बिहार के
मुख्यमंत्री उसी गाँव और समुदाय के हैं. उन्होंने एक पर्वत को लगातार बाईस बरस तक
काटकर रास्ता बनाया और तीस किलोमीटर की दूरी कम कर दी. ऐसा उन्होंने अपनी बीमार
पत्नी को रास्ता न होने पर बचा न पाने के कारण किया. यह कविता उसी हौसले को सलाम
है जो आज भी हजारों लोगों को राह दिखाती है. कहा जाता है वह किसी दलित द्वारा
बनाया गया आधुनिक ताजमहल है)
दशरथ मांझी
..............................................................
रास्ता राजा नहीं बनाता
रास्ता प्रजा नहीं बनाती
रास्ता सेनायें नहीं
बनाती
रास्ता बनाती है ह्रदय की
टीस
उठते हैं हाथ तो बनता है
रास्ता
मिलते हैं हाथ तो बनता है
रास्ता
उठती है हवा तो बनता है
रास्ता
रास्तों का इतिहास
बनाता है रास्ता
किसी दशरथ मांझी के खून में
बैठा होता है एक दलित
जिसे आप कायर समझते
हैं
वह बनाता है रास्ता
एक नहीं हजारो प्रियतमाओं
के लिए
खोल देता है जाने कितने
अवसर
हथौड़ा उठता है
उठाता है एक बिहारी
तोड़ता है एक सामाजिक जकड़न
सोच तोड़ता है पूरी पूरी रात
ठंडी करता है जातीय
गर्मियां
अपने खून मिश्रित पसीने से
उसकी प्रियतमा का पाँव है
उसका गाँव
प्रियतमा का खेत है उसका मन
प्रियतमा का आँचल है उसकी
रोजमर्रा की जिन्दगी
वह बनाता है हर रोज एक
रास्ता
अपनी उस प्रियतमा की याद
में
वह डूबकर काटता है पत्थर
घास से नहीं
ह्रदय में उपजी गड़ेंतियों
से
वह लिखता है रोज एक नाम
समुद्र में तैराने के लिए
नहीं
रास्ता बनाने के लिए
उसके खोदे हुए पत्थर से
निकलता है पानी
उसके खोदे हुए पत्थर से
निकलती है आग
फिर निकलता है एक
रास्ता
मेंहदी
...........................................................
...........................................................
जीवन खुशनुमा है
संघर्ष करते हुए ठीक से जान नहीं पाये
युद्ध करते हुए महसूस करते रहे तुम्हारे अद्भुत वचन
बारूद से आती रही कोई मिठास
संघर्ष करते हुए ठीक से जान नहीं पाये
युद्ध करते हुए महसूस करते रहे तुम्हारे अद्भुत वचन
बारूद से आती रही कोई मिठास
एक अभ्र चमकता रहा
उठती रही एक खुशबू जाने कब से
‘एक अवस्था होती है महसूसने की भी’
जो आज पैदा हुई
उठती रही एक खुशबू जाने कब से
‘एक अवस्था होती है महसूसने की भी’
जो आज पैदा हुई
सुनो बाबा !
आज तुम्हें फिर मेंहदी के फूल में महसूस किया
इस कदर मीठी कोई गंध ! अहा
बहुत देर तक सूंघता रहा आसन्न प्राण
लगता था कोई खुशबू है कायनात में
जो आज से पहले कभी नहीं उठी
आज तुम्हें फिर मेंहदी के फूल में महसूस किया
इस कदर मीठी कोई गंध ! अहा
बहुत देर तक सूंघता रहा आसन्न प्राण
लगता था कोई खुशबू है कायनात में
जो आज से पहले कभी नहीं उठी
किताबें महकती हैं
विचार महकते हैं
विचारधारा महकती है
जब उठती है खुशबू
विचार महकते हैं
विचारधारा महकती है
जब उठती है खुशबू
रसभंग की दशा तो तब हुई
जब पास आये ओमप्रकाश बाल्मीकि और कहा
भाई मैंने भी महसूस किया था यही गंध
‘जूठन’ बनने की प्रक्रिया से गुजरते हुए
जब पास आये ओमप्रकाश बाल्मीकि और कहा
भाई मैंने भी महसूस किया था यही गंध
‘जूठन’ बनने की प्रक्रिया से गुजरते हुए
‘जीवन में परिवर्तन
पलायन से नहीं
संघर्ष और संवाद से आयेगा’
कह रही थी मेंहदी की खुशबू
संघर्ष और संवाद से आयेगा’
कह रही थी मेंहदी की खुशबू
सुनो बाबा ! आज महसूस किया
बारूद और मेंहदी की एक जैसी गंध
जो तुमसे होकर गुजरी
बारूद और मेंहदी की एक जैसी गंध
जो तुमसे होकर गुजरी
घायल देश के सिपाही
………………………………………………………………………….
(इरोम शर्मिला के लिए जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)
लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक
मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ
लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है
मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ
जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे
हमारी हरी देहों का दोहन
शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है
उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है
सोचता है मैं हार जाउंगी
घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न
आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है
आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है
आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे मेरी रखवाली करती है
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई
कितनी लाल और मादक है
क्या सोचते हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ
मैं इरोम हूँ इरोम
इरोम शर्मिला चानू
(इरोम शर्मिला के लिए जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)
लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक
मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ
लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है
मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ
जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे
हमारी हरी देहों का दोहन
शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है
उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है
सोचता है मैं हार जाउंगी
घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न
आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है
आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है
आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे मेरी रखवाली करती है
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई
कितनी लाल और मादक है
क्या सोचते हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ
मैं इरोम हूँ इरोम
इरोम शर्मिला चानू
डरी हुई चिड़िया का मुकदमा
..................................................................
एक :
एक डरी हुई चिड़िया पिंजरे में बंद है
खूनी पंजों से बाहर कैसे जायेगी
तम्बाकू मलते हुए है तोंदू दरोगा ठकुरई अंदाज
में
अपनी भाषा में सिपाही को समझाता है
क्या तुम जानते हो दो-दो पांच कैसे होते हैं
सिपाही अपनी सूड़ हिला देता है
हिंदी की रीतिकालीन कविता की तरह
वह प्रत्येक अंग की शालीन सफाई करता है
जैसे सब लोग करते हैं मौका पाकर
एक ही सांस में सारी बातें मात्रिक छंदों में
समझा देता है
जैसे समझाता है नाई का उस्तरा
वकील बन मुकदमे से पहले का हार समझाता है
लम्बे अनुभव का की दुहाई देता है
बताता है भय भूख भ्रष्टाचार
‘बड़का बाबू का किहे रहिन ओकरा साथे जानत हौ’
पंडित बन धर्म की दुहाई देता है
समझाता है लाभ लोभ
बस अब राम नाम लो जो कुछ हुआ सब भूल जाओ
बताता है इस करनी का फल वहां मिलेगा जहाँ केवल
देवता रहते हैं
न्यायालय में क्या तेरा बाप बैठा है जो फाइल
ढूंढेगा
पूरे मुकदमे का बहीखाता बताता है बन महाजन
माँबहिन की आरती उतारता हुआ
बुदबुदाता है
अधूरी जांच लटक जाती है लिखी फाइल में
चिड़िया बकरियों को आवाज लगाती है
मुर्गियों से प्रार्थना करती है
सामान दुःख भोगे हुए दूसरी चिड़िया से गवाही के
लिए कहती है
शुरुवाती दिनों के बाद गवाह पलट जाते हैं
मुकदमा पीढ़ियों का दर्द बन जाता है
दो :
परदे के पीछे
पिंजरे में बंद चिड़िया का एक राजनीतिक जुगाड़ है
उसकी जाति का छुटभैया नेता शिफारिस में आता है
न नुकुर के बाद बोलेरो वाला दरोगा चायपानी के
बाद
किसी कमजोर धारा में मुकदमा लिखता है
अपराधी को सूट करने वाली धारा अचानक हँस देती
है
न्याय की अंधी गलियों में सबकी आखों पर काली
पट्टी है
जहाँ अपारदर्शी न्याय की मक्खियाँ गोल भिनभिनाती
हैं
सिर्फ न्याय की देवी देखती हैं राजनीतिक
ओहदा
कोलेजियम सत्ता की दारू पी सो जाता है
अब शुरू होती है एक अदद ऐसे वकील की खोज
जिसका जज से जुगाड़ हो या उसकी रिश्तेदारी में
आता हो
जीतने के दावे के साथ अच्छे वकील के जिरह में
जज का हिस्सा है जानती है पिंजरे की चिड़िया
महगाई गरीबी और गुरवत में टूटी हुई कमर
अच्छे वकील की तलाश में झुक जाती है
बाकायदा गवाहों की एक पलटन है चिड़िया के पास
जिन्होंने सामान दुःख भोगा है
भूख की लकीरे खिच गई हैं उनके चेहरे पर
जिनके जिस्म पर इराकी घाव अभी दिख रहे हैं ऐसे
दलित देश
मुकदमे की ईमानदारी पर शक करते हैं
दिल्ली पटना झाबुआ गोहाना बाथे
वर्णवादी फौजें रोज मारती हैं जिन्हें
उनके कपड़े उतरती हैं
जिस देश में सबको पिटने की आदत हो
वहां जज वाली अदालत खामोश बैठी रहती है
चिड़िया ने एक लम्बी उम्र कैद में गुजार दी है
अतः जेल उसे बाहर के घर से सुरक्षित लगती है
क्योंकि वहां उसके लिए सिपाही तैनात हैं
सूरज ऱोज सुबह भैसे की तरह गुर्राता है
चिड़िया की आत्मा भैसे की आँख में झांक लेती
है
प्राकृतिक
न्याय
..........................................
न्याय होने और किये जाने के बीच
लाचारी बहुतै कसमसायेगी
कमजोर देहिया के भीतर
बाजुओं की जकड़न में कैद कउनो हिरनी
अंततः पिज्जे का हिस्सा हो सज जाएगी
बाजार के सामने
कउनो उसे पुचकारेगा
कउनो उसे दुलार लेगा
कउनो एहसान की कीमत वसूलेगा
कउनो बहुत अपनापन दिखायेगा
अंततः
बहुत नीली-नीली आँख
सुडौल वक्ष, मदभरी चितवन, मस्त चाल
एक बार में ही अपना बना लेने की अदा
दो जांघों के बीच
सिमटकर ख़त्म हो जाएगी
कउन सुनेगा साहिब
फरियाद बुरी चीज है
जज सबूतों में जिन्दगी गुजार देगा
पुलिस तफ्तीश में
एक लम्बे इंतजार में हम तुम भी गुजर जायेंगे
जज के ऊपर नहीं चलेगा हत्या का मुकदमा
पुलिस को सस्पेंड नहीं किया जायेगा
आपका तो कुछ कहना नहीं
प्राकृतिक न्याय
ऐसे ही तो होता है साहिब
..........................................
न्याय होने और किये जाने के बीच
लाचारी बहुतै कसमसायेगी
कमजोर देहिया के भीतर
बाजुओं की जकड़न में कैद कउनो हिरनी
अंततः पिज्जे का हिस्सा हो सज जाएगी
बाजार के सामने
कउनो उसे पुचकारेगा
कउनो उसे दुलार लेगा
कउनो एहसान की कीमत वसूलेगा
कउनो बहुत अपनापन दिखायेगा
अंततः
बहुत नीली-नीली आँख
सुडौल वक्ष, मदभरी चितवन, मस्त चाल
एक बार में ही अपना बना लेने की अदा
दो जांघों के बीच
सिमटकर ख़त्म हो जाएगी
कउन सुनेगा साहिब
फरियाद बुरी चीज है
जज सबूतों में जिन्दगी गुजार देगा
पुलिस तफ्तीश में
एक लम्बे इंतजार में हम तुम भी गुजर जायेंगे
जज के ऊपर नहीं चलेगा हत्या का मुकदमा
पुलिस को सस्पेंड नहीं किया जायेगा
आपका तो कुछ कहना नहीं
प्राकृतिक न्याय
ऐसे ही तो होता है साहिब
जब
कोई स्त्री रोती है :
सिगरेट के धुंए से जल उठते हैं विस्तर, परदे, खिड़कियाँ
छप्पर से चूकर जब नीचे आते हैं आंसू
उसका अकेलापन उसे सांत्वना देने आता है
बहुत भीतर तक कैद की हुई सुख की दीवारें
जब खुल जाती हैं
पेपर वेट उठाकर छुटकू पूंछता है
पापा के लड़ने का सामान इतना गोल और भारी क्यों है
बहुत गीली हो गई लकड़ियाँ अब जलती नहीं
इन दिनों सीलन से भी घुटन होती है
सारी-सारी रात वह विस्तर को गोंद में उठाये
पानी और खुद को अलग करती है
जीवन इतना कठिन नहीं था
जब वह पानी की इन्हीं बूंदों से खेलती थी
घंटों नहाती थी सराबोर
एक आज का दिन है हजारो हजार बार
यह सब कुछ उसकी स्मृतियों से गुजरा है
महीनों की यंत्रणा
सात क़दमों से आगे बढ़ गई है
सिटी बस गुजर रही है
बार-बार लगा रही है आवाज
वह है सड़क से चिपकी पड़ी है
भीड़ उसे सांत्वना नहीं दे रही है बस देखे जा रही है
कुछ खामोश औरतें आपस में चुहल कर रही हैं
वे जानती हैं ये कोई एक स्त्री नहीं है
सिगरेट के धुंए से जल उठते हैं विस्तर, परदे, खिड़कियाँ
छप्पर से चूकर जब नीचे आते हैं आंसू
उसका अकेलापन उसे सांत्वना देने आता है
बहुत भीतर तक कैद की हुई सुख की दीवारें
जब खुल जाती हैं
पेपर वेट उठाकर छुटकू पूंछता है
पापा के लड़ने का सामान इतना गोल और भारी क्यों है
बहुत गीली हो गई लकड़ियाँ अब जलती नहीं
इन दिनों सीलन से भी घुटन होती है
सारी-सारी रात वह विस्तर को गोंद में उठाये
पानी और खुद को अलग करती है
जीवन इतना कठिन नहीं था
जब वह पानी की इन्हीं बूंदों से खेलती थी
घंटों नहाती थी सराबोर
एक आज का दिन है हजारो हजार बार
यह सब कुछ उसकी स्मृतियों से गुजरा है
महीनों की यंत्रणा
सात क़दमों से आगे बढ़ गई है
सिटी बस गुजर रही है
बार-बार लगा रही है आवाज
वह है सड़क से चिपकी पड़ी है
भीड़ उसे सांत्वना नहीं दे रही है बस देखे जा रही है
कुछ खामोश औरतें आपस में चुहल कर रही हैं
वे जानती हैं ये कोई एक स्त्री नहीं है
अयोध्या और मगहर के बीच
…………………………………………………………………………….
अयोध्या और मगहर के बीच फैली है एक काली रेखा
शुष्क किन्तु बजबजाती हुई
जैसी वैचारिक दूरी है मड़ई चमार और सुरजन पांडे के अहाते बीच
घिन और बदबू से सराबोर
दोनों की संस्कृतियों और सपनों में बुद्धिजीवियों सा तेवर
दोनों की कूट रेखाओं को पढ़ती हैं क्रूर सरकारें
समय और सन्दर्भ के अनुसार सूखते फफोले और
लपटों में जलती जिन्दा देहों की तरह राजनीति
करवट बैठती है अयोध्या में
प्रधानमंत्री का जुमला छोड़ता
राजाओं के पासे में अयोध्या फिर फिर प्रासंगिक रहा है
अयोध्या और मगहर के बीच फैली है एक काली रेखा
शुष्क किन्तु बजबजाती हुई
जैसी वैचारिक दूरी है मड़ई चमार और सुरजन पांडे के अहाते बीच
घिन और बदबू से सराबोर
दोनों की संस्कृतियों और सपनों में बुद्धिजीवियों सा तेवर
दोनों की कूट रेखाओं को पढ़ती हैं क्रूर सरकारें
समय और सन्दर्भ के अनुसार सूखते फफोले और
लपटों में जलती जिन्दा देहों की तरह राजनीति
करवट बैठती है अयोध्या में
प्रधानमंत्री का जुमला छोड़ता
राजाओं के पासे में अयोध्या फिर फिर प्रासंगिक रहा है
चुनाओं
के आने तक, चुनाओं के बाद
निरीहों को फासी तक ले जाता हुआ
शहर को शवदाह बनता हुआ, खुद पर थूकता हुआ
पत्थरों में कैद रामलला, समझते हैं राजनीति का व्याकरण
रोते हैं कभी कभी अपने कृत कर्मिन पर
निरीहों को फासी तक ले जाता हुआ
शहर को शवदाह बनता हुआ, खुद पर थूकता हुआ
पत्थरों में कैद रामलला, समझते हैं राजनीति का व्याकरण
रोते हैं कभी कभी अपने कृत कर्मिन पर
बूढी
आस्थाओं के डूब जाने से पहले
थरथराती है दीपक की लौ भीत एवं मद्धम
दूरियों को पाटने वाली राहें, पोंछती है पसीना
थके हुए पथिक डरते हुए भागते हैं
छांह बरसाती धूप के लिए ढूढ़ते हुए आसरा
डुगडुगी वाले बजाते हैं रौनक
सुखी हैं अयोध्यावासी खबर फैली है जाखन मुहल्ले में
अयोध्या के घाटों पर सर्कस करते पंडों की ध्वनि गूंजती है
काया का मार्जन करती निगाहें भोग में योग देखती हैं
मंत्र फूकते हुए सरयू रोती हैं खुद पर
भक्ति बेचती थुलथुल दुकाने, अट्टहास करती है
मूर्ख जनता की भोली आस्था पर
मगर शांत पड़ा है मगहर
वहां की जनता एक बदहवास नदी को छोड़कर
नहाती है कुवानों, मलती है उस की धूल
जैसे कबीर आज भी प्रासंगिक हों सनातन मगहर में
मगहर चर्चा में नहीं रहता
खुद से डरा-डरा पहुँचता है राजधानी
एक डरे हुए दलित की तरह,
जिसका खेत छीन लिया है दबंगों ने
सवर्ण थाने में जिसकी रपट नहीं लिखता दरोगा
उल्टा चोरी के आरोप में कैद करता है उसकी आत्मा
मगहर अयोध्या के आइने में अपना अक्स देखता है
जैसे दाढ़ी का सफ़ेद बाल देखता है बूढायुवा
थरथराती है दीपक की लौ भीत एवं मद्धम
दूरियों को पाटने वाली राहें, पोंछती है पसीना
थके हुए पथिक डरते हुए भागते हैं
छांह बरसाती धूप के लिए ढूढ़ते हुए आसरा
डुगडुगी वाले बजाते हैं रौनक
सुखी हैं अयोध्यावासी खबर फैली है जाखन मुहल्ले में
अयोध्या के घाटों पर सर्कस करते पंडों की ध्वनि गूंजती है
काया का मार्जन करती निगाहें भोग में योग देखती हैं
मंत्र फूकते हुए सरयू रोती हैं खुद पर
भक्ति बेचती थुलथुल दुकाने, अट्टहास करती है
मूर्ख जनता की भोली आस्था पर
मगर शांत पड़ा है मगहर
वहां की जनता एक बदहवास नदी को छोड़कर
नहाती है कुवानों, मलती है उस की धूल
जैसे कबीर आज भी प्रासंगिक हों सनातन मगहर में
मगहर चर्चा में नहीं रहता
खुद से डरा-डरा पहुँचता है राजधानी
एक डरे हुए दलित की तरह,
जिसका खेत छीन लिया है दबंगों ने
सवर्ण थाने में जिसकी रपट नहीं लिखता दरोगा
उल्टा चोरी के आरोप में कैद करता है उसकी आत्मा
मगहर अयोध्या के आइने में अपना अक्स देखता है
जैसे दाढ़ी का सफ़ेद बाल देखता है बूढायुवा
कैसे लिखूँ पुलिस, सत्ता और महबूबा पर कविता
.............................................................................
इस साल बारिस कम हुई
सूखा भी नहीं पड़ा
कमाई के आसार बहुत कम हो गए हैं
अच्छा होता खूब बारिस होती
गांव घर डूब जाते, हजारो हजार लोग मरते
वैसे मरे हुए लोगों का मरना भी क्या ?
हमारे अनुसार कहाँ क्या होता है ?
यह सरकारी वेतन की तरह अपर्याप्त और एक बार मिलता है
ऱोज की कमाई ज्यादा अच्छी होती है
ऱोज पाओ मजे उड़ाओ,
हमसे ज्यादा खुश तो मजदूर हैं
खैर हम सरकारी तंत्र हैं
गरीबी, भुखमरी, बीमारी से कमाते हैं
भगवान् करे ये हमारे देश में लाखों साल तक जिन्दा रहें
सारा प्रबंधन ऊपर वाले की कृपा पर
मूड कमाई के हिसाब से
अबकी बार मनाली जाना है या स्वीटजरलैंड
निर्धारित करता है ‘राहत आपदा’
इस बार विजय यज्ञ नहीं करायेंगे स्वामी जी
उनका फ़ोन आया था, धर्मभीरु मंत्री अब धर्म से नहीं डरते
उन्हें पता है डरकर उन्नति नहीं की जा सकती
खैर हमारे लिए संकट का समय है
न बाढ़ है न सूखा, ऐसे में कैसे लिखूँ
पुलिस, सत्ता और महबूबा पर कविता
.............................................................................
इस साल बारिस कम हुई
सूखा भी नहीं पड़ा
कमाई के आसार बहुत कम हो गए हैं
अच्छा होता खूब बारिस होती
गांव घर डूब जाते, हजारो हजार लोग मरते
वैसे मरे हुए लोगों का मरना भी क्या ?
हमारे अनुसार कहाँ क्या होता है ?
यह सरकारी वेतन की तरह अपर्याप्त और एक बार मिलता है
ऱोज की कमाई ज्यादा अच्छी होती है
ऱोज पाओ मजे उड़ाओ,
हमसे ज्यादा खुश तो मजदूर हैं
खैर हम सरकारी तंत्र हैं
गरीबी, भुखमरी, बीमारी से कमाते हैं
भगवान् करे ये हमारे देश में लाखों साल तक जिन्दा रहें
सारा प्रबंधन ऊपर वाले की कृपा पर
मूड कमाई के हिसाब से
अबकी बार मनाली जाना है या स्वीटजरलैंड
निर्धारित करता है ‘राहत आपदा’
इस बार विजय यज्ञ नहीं करायेंगे स्वामी जी
उनका फ़ोन आया था, धर्मभीरु मंत्री अब धर्म से नहीं डरते
उन्हें पता है डरकर उन्नति नहीं की जा सकती
खैर हमारे लिए संकट का समय है
न बाढ़ है न सूखा, ऐसे में कैसे लिखूँ
पुलिस, सत्ता और महबूबा पर कविता
हमारी दुनिया
..............................................................................
मेरे गाँव के कसाई बाड़े में, फैली हुई है मरघट
की शान्ति
यहाँ ऱोज थोड़ा-थोड़ा मरती है हवा
लाल लपलपाती है आग की जीभ
गाभिन गायें डरती हैं बच्चा जनने से
खुरदरी बाकियों से कटते हैं कमजोर कंधे
भीतर ही भीतर सुलगती है झोपड़ी
इतिहास गवाह है हमारा इतिहास नहीं
हम नहीं गाते गौरव गाथा
हमने जब लिखना चाहा अपना इतिहास
काट दी गईं हमारी अंगुलियाँ
हँसना भूल गई हैं हमारी पीढियां
साठ सालों की उम्मीद उतार रही है केंचुल
दीन-हीन दलित वंचित जैसे शब्दों का साहित्य
हमारे सपनों को करता है कमजोर
हमारे हिस्से में काली कोयल नहीं गाती
हाँ मल्हार बजता है हमारे चुचुवाते घुटनों से
यह मेरा गाँव चमारन चूड़िहारन बाम्ह्नान
सबके अपने अपने ठिकाने ऊचें और चमकदार
पर नहीं ऐसी कोई सड़क
जो उत्तर को दक्षिण से जोडती हो
दक्षिण यानी हमारे मुहल्ले को
यहाँ उम्मीद से भीगी पलकें
अलशुबह हो जाती हैं मजदूर
ऱोज लाना ऱोज खाना हमारी नियति
हमारी बेटियां कुपोषण का शिकार हैं
सारा अनाज खा जाती है आंगनबाड़ी
पुष्टाहार खा जाती हैं साहब की गायें
विकास की धीमी रफ़्तार दर्ज होती है
मस्टररोल में काली स्याही से
विकास के प्लान सबप्लान
डकार जाती हैं भोली सरकारें
उनके जबड़े पर लगा खून देखती है निरीह जनता
मरे हुए प्रतिरोध के साथ
कठिन समय है हमें पढ़ना है कानून
हमें भूख के खिलाफ बगावत करनी है
हमें अन्याय के खिलाफ खड़े होना है
हमें मागना है सूचना का अधिकार
हमें लिखना है नया संविधान
हमें बनानी है नई दुनिया
हमें वह सब करना है
जो न्याय के खिलाफ है
वो मेरे दोस्त मुझे मेरी दुनिया घर की तरह सजानी
है
उसे मंदिर नहीं बनाना
मैं लिखता क्यों हूँ
.....................................................
एक सडसी है मेरे हाथों में
तपा रहा हूँ गर्म लोहा
लोहे पर चोट करूँगा ताकि उसे कलम बना सकूँ
बना सकूँ माँ के हाथ में रक्खी हुई बीड़ी
पिता के हाथों में रक्खा हुआ फावड़ा
लोहा जो मेरी किताबों में भरा पड़ा है
लोहा जो मेरी अस्थियों में बहता है
लोहा जो मेरी सोच है
कोई एक और ठंडा लोहा मुड़ता नहीं
टूट जाती हैं उसकी किरचे
शिकायत नहीं
किसी बेरहम लोहे को खालिस पीटने से क्या होगा
फौलाद होने तक उसे गल जाने दो
उसके गलने से कईयों की जिन्दगी आकार लेगी
जब लोहे की सांकलें इतनी मजबूत हों
कि वंचित उससे बाहर न आ पाए
तो काटी जा सकती हैं अपराधी सांकलें
जब तुम्हारी कलमें लोहे की हों तो तुम आत्मकथा लिख सकते हो
तुम्हारी आत्मकथा में हो सकता है लोहे का दुःख
किसी जंग लगे लोहे की तरह तुम्हारी प्रतिभायें गला दी जायेंगी
तुम्हें कहा जाएगा तुम लीटर को मीटर में नहीं माप सकते
दोस्तों लोहे की प्रेरणा से लिखता हूँ कविता
क्योंकि लोहे की तलवारों से मैं शोषक का गला नहीं रेत सकता
कविता लिख सकता हूँ
लज्जा तुम्हारा आभूषण नहीं है
......................................................
अंतिम प्रतीक्षा के बाद
इन टापुओं पर फैले बहुत
छोटे-छोटे सूखे कपास
सरकारी दुःख की तरह
तुम्हारे उपांगों की सूखी
हुई चर्बी
तेज हवा के झकोरे से पथराई
हुई लट
यह साबित करते हैं कि
तुम्हें मार दिया गया है
कितनी बार ली गई तलाशी
कितने बार टटोले गए उपांग
कितनी बार विधिपूर्वक
पूछताछ की दरोगा ने
तुम्हारे स्तनों का दूध भय
से सूख गया
यह सब कुछ दर्ज है सरकारी
महकमें के किसी रजिस्टर में
जानता है लाओत्से, पर
तुम्हारे बलात्कार की खबर
अब भी संपादक के कमरे में
पड़ी है
शाम के धुधलके में जब
दारूबाज भेड़िये
तुम्हारी फोटो मुख्यालय भेज
रहे थे
तब उनके चेहरे पर एक
रहस्यमयी मुस्कान थी
हालाँकि उनकी रहस्यमयी
मुस्कान उनके जड़ों से जुडी हुई थी
उन्होंने फोटुयें भेजी
क्योंकि वे नशे में रहे होंगे
वे रिपोर्टें जो तुम पति को
भी नहीं दिखा सकीं
लाल धरती पर फैल गईं मुह
ढके हुए
मैला कमाते हुए भी तुमने यह
नहीं महसूसा होगा
जिस्म इससे भी ज्यादा गन्दा
हो सकता है
तुम्हारे मौलिक अधिकार जो
अब देह में तब्दील हो चुके हैं
हजारो घंटों तक मर्सिया
गाते रहे
कला के लिए नहीं था
तुम्हारा यह सहवास
संगत के लिए नहीं थीं
तुम्हारी ये हथेलियाँ
सत्संग के लिए तुम्हें मंच
पर नहीं बैठाया गया था
बल्कि तुम्हें तुम्हारे
दलितापे से नोच लिया गया था
खैर, तुम ख़त्म नहीं हो रही
हो
तुम्हारे खून में भी आ रहा
है उबाल
तुमने अपने आक्रोश को गीत
में बदल लिया है
तुम्हारे हाथों में रक्खी
हुई किताबें
विद्रोह की ज्वाला में जल
रही हैं
दलिताओं ! लज्जा तुम्हारा
आभूषण नहीं है
तुम्हारा आभूषण है ज्ञान,
विवेक, विद्रोह
खैरलांजी की औरतें
.......................................
मौत चीखी है, लड़ी हैं अंतिम दम तक सासें
उनके हाथ कटने के बाद भी तड़पते रहे हैं
खून फैलकर सैलाब बन गया है
वे जो बची हैं वे आज भी भयभीत हैं
पूरी बस्ती पलायन कर गई है धीरे-धीरे
यह एक स्त्री जो दिखाई दे रही है
गू,
बदबू और चोट के
निशान से सनी हुई
रक्त उगलती अंतड़ियाँ, स्तनों पर फैला हुआ खून
और उसके भीतर तक धंसा हुआ पत्थर
केवल एक स्त्री नहीं है
एक काली देह जो बन गई है कई देहें
ठीक उसी तरह से मारी गईं हैं उसकी तीन-तीन बेटियां
जाँघों पर दिखाई दे रहे हैं पत्थरों के निशान
गर्दन के नीचे से गुजारी गईं हैं लाठियां
रीढ़ की हड्डियों को तोड़ा गया है
उससे भी पहले तड़ाक से तोड़ दिया गया है हाथ
ये जो लोग उसे घेरकर खड़े हैं
वे केवल स्त्रियों को देखने आये हैं
हर आदमी ने देखी है एक स्त्री,
अलग-अलग तरह की बातें
रसविद्ध सुनाई जा रही हैं
दिखाई दे रही हैं फटी हुई देह
सुनाई दे रही गिद्धों की आवाजें
इसके सिवा शायद अभी कुछ न दिखाई दे रहा है
न सुनाई दे रहीं हैं चीखती आवाजें
लेकिन हैवानियत दौड़ी है
तोड़े गए हैं भयभीत दरवाजे
भीतर फट गया है धमनियों का रक्त
तडपा-तडपा के मारा गया है
एक साथ
माँ,
बेटी, दो पुत्रों के साथ
फिर किया गया है बलात्कार उस लाश के साथ
क्या किसी ने देखा है ब्रेनहेमरेज
क्या अंतड़ियों से खून को निकलते देखा गया है
क्या किसी ने देखी है पोस्टमॉर्टेम की प्रक्रिया
खुल गई हैं न्याय की दुकानें
मिलेगा जरुर मिलेगा न्याय
कुछ मांस के लोथड़े, कुछ हड्डियों का चूरमा
कुछ नुकीले दांत चढाने के बाद
निर्भया तुम दिल्ली में थीं
तुम्हारे लिए बनायी गई फ़ास्टट्रैक अदालत
कानून में परिवर्तन हुआ
दरिन्दे आज भी घूम रहे हैं नए शिकार की तलाश में
आठ वर्षों बाद भी क्या खैरलांजी को मिल पायेगा
न्याय
उनके घर का पानी मत पीना
……………………………………………………………………….
तीन हजार साल पहले
मेरे पूर्वज नहीं गांठते थे जूते
नहीं करते थे बेगारी
वो दास नहीं थे, न ही रहते थे दक्खिन टोले
ज़र, जंगल, जमीन
सब पर था उनका बराबर हक़
कहते हैं पाप का घड़ा फूटा
हड्डियों से रिसने लगा तेजाब
चौधरी बने चौहद्दी पर खड़े राक्षसों ने
लूट लिए खेत
बंजर कर दिए संसाधन
आज भी मेरे पूर्वज जूते नहीं गांठते
न ही करते है हरवाही
अब वो गुलाम भी नहीं
वो आम आदमी की तरह सोचते विचारते हैं
पड़ोस वाली आंटी कहती हैं
उनके घर मत जाना
उनका दिया मत खाना
उन्हें घर किराये पर मत देना
तीन स्मृतियाँ
……………………………………..
समय के सहचर
मेरे तीन गुरू, माता पिता आचार्य
स्कूल जाते हुए मेरे पिता ने
पहली शिक्षा दी
तुम्हे कोई जाति सूचक शब्द कहे
बीजार, चूहड़ा, चमार बताये
मारे गरियाये/ प्रतिवाद मत करना/ सह लेना
क्योंकि वो मुझे पढ़ाना चाहते थे
मेरी माँ
चक्की बनी पीसती मालिक का आटा
करती हरम की मेमों की मालिश
बमुश्किल लाती थोड़ा अन्न / पानी पी फाकें मार सो
जाती
ताकि मेरी किताबें आ सके
गुरू ने बेहद अहम् भूमिका दी जीवन की
सबके सामने अक्सर पूछते थे वे मेरी जाति
झाड़ू लगवाते, पुछ्वाते मेजें
तुम ढोर पढोगे तो काम कौन करेगा
देते नसीहत
संवेदनशील हो पढ़ाते हिंदी मुहावरे
आज मैं पढ़ लिख गया
तीन स्मृतियाँ चौथे का गला घोंट रहीं हैं
मेरे हाथ !
...............................................................
तानाशाह मुझे रौंदने की जुर्रत मत करना
दो हाथों के अलावा उग आये हैं
मेरे और कई हाथ
मेरे हाथों में आज कलम है, तलवार है
तराजू है, ताबूत की कुछ कीलें
हम मुग़ल नहीं, तलवारों वाले बौद्ध हैं
हम अहिंसा का मतलब समझ गए हैं
पकड़ ली गई है तुम्हारी साजिस
अगली बरसात से पहले
बरसेंगे हमारे हाथ
मशाल की तरह जलेंगी हमारी भुजाएं
खेत, खलिहान, गलियों में
जब वे फैले होंगे
एक सूरज का गला पकड़ बाहर खींच लायेंगे
हम एक सामानांतर सूर्य चाहते हैं
वह सूर्य जिसे तुम्हारे मुकुट ने छुआ नहीं
है
हम अगली साँस तब लेंगे
जब टूट जाएगा तुम्हारा भ्रम तुम बहुत बड़े हो
हम जनेऊ की गाँठ खोलने आये हैं
आसमान से बहुत ऊँची चोटी पर तांडव करने
जब टूट जायेगी ये चट्टानें
और तुम उन चट्टानों में दफ्न हो जाओगे
हम जश्न नहीं मनाएंगे
हम तुम्हारी अस्थियों का चूरमा बनायेंगे
हम अपनी हार का बदला लेंगे
रक्त प्लावित मेरा चेहरा बस तुम्हें देखना चाहता
है
हमें ठीक हो जाना है अपनी कमजोरियां ठीक करते
हुए
मेरी संकल्पधर्मा आँखें मुटभेड का सपना देख रहीं
हैं
क्या हमारी हंसियों की धार में तुम्हारी गर्दन
नहीं समां सकती
क्या तुम्हारे जूते हमारे पांवों में नहीं आ
सकते
मेरा प्यार तुम्हारी दीवारों में दफ्न है
उस दीवार के कोने में जहाँ तुम सोते हो
मेरी प्रेयसी मेरा इन्तजार कर रही है
क्या तुम मेरी आँखों में भरी हुई लाली देख रहे
हो
क्या तुम्हें खुद पर तरस आ रहा है
आओ देखो मेरे हाथ
जो हजारो हाथों में बदल गए हैं
गाय नहीं बकरी माँ है
........................................................
छत्तीस रोगों को काटता है उसका दूध
जब मैं पैदा हुआ, माँ के पीले दूध की जगह
पिलाया गया बकरी का दूध
बकरियां चराते हुए, हमने जाना सहभाव
हमने उनके बच्चों को हाथ में लेकर बहुत प्यार
किया
हमने जाना स्नेह के लिए
जाति और लिंग की जरुरत नहीं
दर्जनों बकरियों वाले घर में
हमारी जीविका का वही रहीं साधन
हम तो भूमिहीन मजदूर थे
हमारे पास नहीं था खेत
खेत नहीं था तो गोबर की जरुरत नहीं थी
फिर जब हम गाय का दोहन नहीं करते तो कैसी गाय
माता
हमने उन्हें देखा किसी दशा में प्रसन्न रहना
रुखा-सूखा जो मिल जाय खुश होके खाते जाना
न किसी से ईर्ष्या न द्वेष
न वैतरणी पार कराने की जहमत
वे चाहती नहीं थीं सांस्कृतिक बगावत
वे समाज में भेदभाव भी पैदा नहीं कराना चाहती
हिन्दू और मुस्लिम क्या ?
उन्होंने जाति को सिरे से नकार दिया था
अजीब सहभाव था उनके भीतर
वे सच्चे अर्थों में त्यागमूर्ति होती थीं
वे निभाती थीं माँ का पूरा रोल
जीते हुए, मरने के बाद भी
उनकी चमड़ी से हम बनाते थे ढोल
बनाते थे खजढ़ी, तम्बूरा
अपने देवता का स्मरण करते हुए
नदी का आचमन करते थे
बकरी का साहचर्य हमारी दिनचर्या का अंग
वह हमारी गरीब साथिनें थीं
स्कूल में गाय पर निबंध लिखते हुए
भूल जाते थे हम गाय पर लिखना निबंध
हमें गाय की जगह याद रहता था बकरी का चेहरा
हम बकरी को याद करके गाय पर निबंध लिख देते
थे
आज मैं बकरियों से भरे इस शहर में खुश हूँ
कोई प्रतिरोध नहीं, कोई वैचारिक चुप्पी नहीं
मैं उनसे भी खुश हूँ ‘जो मुझे बलि का बकरा समझते
रहे’
बकरी खाती नहीं गाय की तरह विष्ठा
एकदम शुद्ध शाकाहारी, खाती है अहिंसक घास
वह रखती है पवित्र होने का अधिकार
हाँ, उसका अस्तित्व मेरा धर्म है
खुल रही हैं गांठे
गाय से ज्यादा बकरी के दूध का उपकार है मेरे
भीतर
गाय नहीं, बकरी माँ है
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें