लोक, सत्ता और प्रतिरोध (संत रविदास की कविताओं का पुनर्पाठ)/ डॉ. कर्मानंद आर्य
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आज यह सोचा जाना ज्यादा जरुरी है कि संत रैदास का
सामाजिक आधार क्या है? क्या उनका आधार जुलाहों, कारीगरों, किसानों और व्यापारियों
का भौतिक जीवन है? क्या यह भारतीय संस्कृति की कोई आकस्मिक धारा है जो उनसे अछूती
रही उनके समय तक? क्या उनके सामाजिक और धार्मिक विस्थापन की भाषा एक देश प्रदेश तक
सीमित रही? इस विद्रोह का मूल स्वर कहाँ कहाँ पहूंचा? क्या यहाँ हमें मानना चाहिए
कि रैदास के समय में सामंती शक्तियों का वर्चस्व कम हुआ? क्या सामंती शक्तियां
कमजोर हुई? क्या केवल धार्मिक प्रभाव की छानबीन से रैदास की भाषा, भाव और विचार का
अध्ययन किया जा सकता है? क्या यह वही समय नही है जहाँ सामंती व्यवस्था में धरती पर
सामंतों का अधिकार था और धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का? क्या पुरोहितों
का इजारा तोडा गया? क्या उस समाज में जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों
को साँस लेने का मौका मिला?क्या कोई प्रतिक्रियावादी साहित्य निकल कर आया? ऐसे
असंख्य प्रश्न हैं जो अब समय के साथ पूछे जाने चाहिए. क्या यह नहीं पूछा जाना
चाहिए कि क्या यह वही भारतीय संस्कृति नहीं है जहाँ एक समाज के अन्त्यज वर्ग से
आने वाला व्यक्ति समाज को चिल्लाकर अपनी जाति का रोना रो रहा है?
मेरी जाति कमीनी, पाति कमीनी, ओछा जनम हमारा
तुम सरनागत, राजा रामचंद, कहि रविदास चमारा[1]
मुक्तिबोध कहते
हैं कि किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए. एक तो यह कि वह किन
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के
कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियायों का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्त:स्वरूप
क्या है, किन प्रेरणाओं और
भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किये हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका
उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित
या नष्ट किया है? संत रैदास की साखियों पदों में हमें उनकी पीड़ा
का भान होता है वे अपने कुल[2], जाति[3], परिवार[4], निवास
स्थान आदि के बारे में ऐसे बताते हैं[5].वे अपने
जीवन[6] की उन सभी
परिघटनाओं को बताते हैं जिनसे कोई रैदास संत रैदास की श्रेणी तक पहुँचता है.
सदियों से वर्णों
जातियों उपजातियों में विभाजित भारतीय समाज की जाति प्रथा के खिलाफ विद्रोह का स्वर
था भक्ति-आंदोलन. इस नारे और विद्रोह ने मुख्यतः ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती दी.
यह भारतीय जनमानस में व्याप्त रूढ़ धर्म का वही प्रतिकार था जो सदियों पहले सिद्ध
नाथ कर चुके थे. भारतीय समाज में दलित चेतना के विकास का एक ही रूप, एक ही स्तर और
कालखंड नहीं रहा. हिंदी पट्टी में इस तरह के सुर हमेशा ही उठते रहे हैं. मल्लाह,
लोध, गड़ेरिया, कुर्मी, तेली, नाई, तमोली, गिरी, अहीर, चमार, धानुक, धोबी, भंगी आदि
ने समय समय पर अपना सुर बुलंद किया. यह जरुर है की एक जाति विशेष के आलोचकों का
ध्यान उधर नहीं गया या जानबूझ कर उन्होंने एक बड़े समुदाय को विलग रखा. इस तरह से
एक वृहत्तर संस्कृति को आजतक लोगों ने दबाकर रखा. अपनी पुस्तक ‘लोक संस्कृति और
इतिहास’ में बद्री नारायण लिखते हैं कि लोक संस्कृति को समझना कहीं ‘आदमी’ को और
इसी प्रक्रिया के रूप में ‘स्वयं’ को समझना है[7]. संत
लोकधर्म के संस्थापक हैं. हिन्दू धर्म, इस्लाम, इनके कर्मकांड, धर्मशास्त्र, कट्टर
आचार विचार और और पुजारियों, मौलवियों की रीति नीति के विरुद्ध ये संत मूलतः प्रेम
के आधार पर ईश्वर प्राप्ति आदि के पक्ष में थे. पुरोहितों और मौलवियों की धार्मिक
भाषाओँ संस्कृत और अरबी के बदले वे लोक धर्म का प्रचार जनता की भाषा में करते थे.[8]
भक्ति आंदोलन का नारा था :
जात-पांत पूछे नहिं कोई / हरि को भजै सो हरि का
होई..
प्रभुत्वशाली
संस्कृति द्वारा एक लम्बे समय तक राज कर लेने के बाद उसके विरुद्ध उभरी
प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरुप ‘विरुद्धों की संस्कृति’ का सामंजस्य का उपक्रम होता
दिखाई देता है. वर्षों से यही होता आया है और एक वर्ग विशेष द्वारा अपनी धारा में
उस ‘मुखर’ प्रतिरोध को उस ‘क्षीण’ प्रतिरोध में बदलने का भरसक प्रयास भी. प्रभुत्वशाली
संस्कृति को मुख्यतः दो काम करने होते हैं एक अपनी सुरक्षा और दूसरा पुनरुत्थान. आधुनिक
समय में इस नए किस्म की संघटनाओं के अध्ययन के क्रम में समाज का पुनर्पाठ हो रहा
है और इसी का एक महत्वपूर्ण पहलू है संत गुरु रविदास की कविताओं को एक नए नजरिये
से देखना. अभी तक उनके साहित्य को विशुद्ध ब्राह्मणवादी नजरिये से देखा गया है
जहाँ उन्हें हिन्दू धर्म में दलितों के प्रतीक रूप में समन्वय का पुतला बना दिया
है. समता और समरसता के नाम पर केवल उन्हें ब्रह्मंधर्म का पिछलग्गू बना कर छोड़
दिया गया. वे आज भी ‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’ के आवेग से कहीं पीछे नहीं हट
पाए. ‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’ ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जैसे जुमलों का अब
पुनर्पाठ होना चाहिए. यह वही पुनर्पाठ है जो आज सत्ताशीन पार्टी ‘सामाजिक समरसता’
के नाम पर ‘सामाजिक समता’ का विनाश करने पर तुली है. इस नए तरह का यह अध्ययन
सामाजिक क्षेत्र में उभर रहे नए बदलाओं को उत्तेजित करने वाला तथ्य प्रदान करेगा. ‘जिसको आमतौर पर लोक संस्कृति माना जाता है, वह कोई एक आयामी
धारणा नहीं, लोक भी बहुल स्तरीय और बहुआयामी है. जब भी लोक को एक आयामी दायरे के
बतौर पेश किया जायेगा, उसका स्वरूप दमनात्मक होगा. निचली जातियों और हासिये के
समुदायों के लोक की सत्ता और ताकतवर समुदायों द्वारा की गई व्याख्याए हमेशा ही इस
समस्या से भरी होती हैं[9]. इस अध्ययन
से इसका भी वृहद् आख्यान भी हमें प्राप्त होगा.
मराठी संत कवियों और हिंदी के उनके सहकार रचनाकारों पर लिखते हुए
गजानन माधव मुक्तिबोध लिखते हैं कि ‘ब्राह्मनेत्तर संत कवि की काव्य भावना अधिक
जनतंत्रात्मक, सर्वांगीण और मानवीय थी. निचली जातियों की आत्म प्रस्थापना के उस
युग में कट्टर पुराणपंथियों ने जो जो तकलीफें इन संत कवियों को दी हैं उनसे ज्ञानेश्वर
जैसे प्रचंड प्रतिभावान संत का जीवन अत्यंत करूँ कष्टमय और भयंकर दृढ़ हो गया. उनका
प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘ज्ञानेश्वरी’ तीन सौ वर्षों तक छुपा रहा.समाज के कट्टरपंथीयों ने
इन संतों को अत्यंत कष्ट दिया. इन कष्टों का क्या कारण था? और ऐसी क्या बात हुई कि
जिस कारण निम्न जातियां अपने संतों को लेकर राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र
में कूद पड़ी?[10]
‘सबाल्टर्न कैन
स्पीक’ वाली शैली में यदि बात की जाय तो संत कवि रविदास की कविताओं का एक भिन्न
पाठ हो सकता है. उनका बहुत ही प्रसिद्ध पड़ है – चमरटा गंन्ठी न जनई, लोग गठावै पनही/आर
नाहिं जिहि तोपउ, नाहिं रांवी ठाऊ तोपऊ/ लोग गाँठि खरा बिगूचा, हउ बिन गाँठे जाय
पहूंचा/ रविदास जपें रामनामा, मोहि सैम सिउ नहीं कामा[11]
मोरि कुचल जाति में बास, ताते जीव मैं रहूँ उदास[12]
चार वेद कीया संदौति, जन रविदास करे दंदौती[13]
यहाँ जिस भक्ति मार्ग पर चलने की बात मुख्यधारा करती है वहां कवि इस बात का प्रतिषेध
करता है कि उसकी भक्ति उन लोगों की भक्ति से अलग है. यहाँ जूता गांठना ही उनकी
भक्ति का ध्येय है और वही काम उन्हें मुक्त करता है. वे अपने एक पद बिम्ब में कहते
हैं कि- मैला मैला कपड़ा बैंता रे, एक धोऊ/ आवै गाढ़ी नींदड़ी रे, कहाँ लो सोऊं[14]
यहाँ भक्ति की वह निठल्ली धारा नहीं है जिसे अपने खालीपन पर गुमान है वरन वह
काम में इतना थकना चाहते हैं कि खुद को जगाना पड़े. यह कामगार समुदाय से आने का फल
है कि वह एक ऐसा बिम्ब रचते हैं जहाँ कर्म और कर्म है दूसरा कुछ नहीं.
तुम चन्दन
हम रैंड बापुरे, निकट तुम्हारे आशा
संगत के परताप महातम, आवै बास सुबासा
जाति भी ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा
नीचे से प्रभु ऊँचो कियो है कहि रविदास चमारा[15]
गजानन माधव
मुक्तिबोध लिखते हैं कि ‘उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों का संघर्ष बहुत पुराना है.
यह संघर्ष नि:सन्देह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र में अनेकों रूपों में प्रकट हुआ. सिद्धों और
नाथ-सम्प्रदाय के लोगों ने जनसाधारण में अपना पर्याप्त प्रभाव रखा, किन्तु भक्ति-आन्दोलन का जनसाधारण
पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं. रैदास कहते हैं :
नागर जना मेरी जाति बिखिआत चमार, हिरदै राम
गोविन्द गुण सार
सुरसरि जल कृत वासनी रे संत जन नहिं करत पानं
सुरसरि अपवित्र गंगाजल, आनिये, सुरसरि होय न
भान[16]
पहली बार शूद्रों
ने अपने सन्त पैदा किये, अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए. कबीर, रैदास, नाभा सिंपी, सेना नाई, आदि-आदि महापुरुषों ने ईश्वर
के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की. समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध
नया विचारवाद अवश्यंभावी था. वह हुआ, तकलीफें हुई. लेकिन एक बात हो गयी.[17] जो भक्ति-आंदोलन
जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक
आशा-आकांक्षाएं बोलती थीं, उसका 'मनुष्य-सत्य` बोलता था, उसी भक्ति-आन्दोलन को उच्चवर्गीयों ने आगे चलकर अपनी तरह बना
लिया, और उससे समझौता करके, फिर उस पर अपना प्रभाव कायम
करके, और अनन्तर जनता के
अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस पर अपना
पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया. मध्यकाल का
सामाजिक ढांचा धर्म की मजबूत भित्ति पर खड़ा था. राजनीतिक अस्थिरता अधिक थी. यहाँ
धर्म से पलायन नहीं धर्म में रहकर धर्म का सुधार करना था. धार्मिक अलौकिकता और
अन्धविश्वास हिन्दू धर्म के मूल में सदा से रहे हैं. संत रैदास के साथ भी ऐसी बहुत
सारी गपोड़ कथाएं जोड़ दी गई हैं जिससे सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म की अंधरूढ़ियाँ ही
पुष्ट होती हैं. संत रैदास गुफा में बैठकर केवल अपने मोक्ष का प्रबंधन करने वाले
संत नहीं थे वरण उनकी मूलभूत मान्यता थी कि हर पल हर समय लोक कल्याण होना चाहिए.
वे व्यक्ति को लोक कल्याण कारक मानते थे – सब सुख पावैं जासु ते, सो हरि जू के दास/
कोऊ दुःख पावे जासु ते सो न दास हरिदास[18]
ईश्वर और भक्ति के दरबार में मूलतः प्राणिमात्र
की समता की प्रतिष्ठा के सामने समाज का घृणा पर आधारित सिद्धांत कितने दिन चल सकता
है? इसी सिद्धांत की प्रतिष्ठा के लिए परंपरा, परंपरागत धर्म रूढ़ियाँ और वह मूर्ति
जो सबके प्रति पूज्य नहीं थी रैदास के विरोध का पात्र बनी. जन्मजात उच्चता एवं
मूर्ति की आस्था तो जनता पहले ही देख चुकी थी रैदास की युगानुरूप बात जनता को
शीघ्र ग्राह्य हुई.
थोथा ज्ञान, पधारो रे कोई, जोई रे पछोगे जामें
निज कण होई
थोथी काया, थोथी माया, थोथा हरि बिन जनम गंवाया
थोथा पंडित, थोथी बानी, थोथी हरि बिन सबै कहानी
सांचा सुमिरन नाव विसास, मन वच कर्म कहै रैदास[19]
तत्कालीन हिन्दू मुस्लिम
संघर्ष को वे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे. उन्होंने उन दोनों धर्मों को कहा था-
कृष्ण करीम राम हरि राघव जब लगि एक न पेशा / बेद कटव कुरान पुरानन सहज एक करि भेषा[20]
डॉ. कर्मानंद
आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा
केंद्र, हिंदी
बिहार केन्द्रीय
विवि. गया
हम अपराधी नीच घर
जन्में कुटुंब लोक करे हांसी रे, पद १०७
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