वाचिक परंपरा के अंतिम ‘जनकवि’ का जाना / डॉ. कर्मानंद आर्य / Dr Karmanand Arya



 
पिछले तीन दशकों से जेएनयू समेत कई विश्वविद्यालयों के अन्दर और बाहर परिवर्तन की अलख जगाने वाले जनकवि रमाशंकर यादव विद्रोहीहमारे बीच नहीं रहे. इसी के साथ हिंदी कविता ने वाचिक परम्परा एवं सच्चे प्रगतिशील-वामचेतना के अंतिम जनकवि को खो दिया. लगभग ढाई महीने पहले जेएनयू के गंगा ढाबे पर उनसे मिला था. तीन दिसंबर १९५७ को उत्तर प्रदेश के ऐरी फिरोजपुर गाँव में करमा देवी और रामनारायण के बेटे के विद्रोहीहो जाने की अद्भुत कहानी है. जिन लोगों ने उनकी कवितायेँ गुनी-धुनी हैं या जिसने उनकी कविताओं के पोस्टर दीवारों पर टंगे देखे हैं केवल वे नहीं, अपवंचित राष्ट्र के हलवाह-चरवाह, दलित-आदिवासी, स्त्रियाँ-बच्चे, यातनाएं झेलने वाले उनके बारे में बेहतर जानते हैं. पिछले दिनों पटना में जब विद्रोहीगांधी मैदान के इर्द-गिर्द चौराहों पर अपनी कवितायेँ सुना रहे थे तो ठेले, खोमचे रखने वाले और दूसरे मेहनतकश जानना चाहते थे कि यह कवि कौन था, जो हमारी बातें कह रहा था. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से लेकर दिल्ली के तमाम सत्ता-प्रतिष्ठानों में बैठे वामपंथी मठाधीशों के लिए विद्रोही सिर्फ एक प्रतीक थे, एक फुटकर उपलब्धि था- हास्य, क्रूरहास्य के पात्र विद्रोही इन वामपंथियों के लिए अपने सामाजिक सरोकारों का प्रतीक मात्र थे. 
किसी की हिम्मत नहीं जो विद्रोही को छू सके : वे जानते थे कवि, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ विगुल बजाता है. वह जानता है क्रूर शासक मरेंगे पर कवि का मरना सबसे बाद में होगा. प्रकृति के अरण्य में बसंत के आने पर और वह भी सबसे बाद में :
यानी सारे के सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है/ या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके / और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था[1]
वाम राजनीति से जुड़े और विद्रोही छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते रहे. कहते हैं यूनान में सुकरात भी ऐसे ही घूमता था और भक्तिकाल में कबीर की वाणियाँ भी ऐसे ही लोगों के भीतर जगह पाती थी. विद्रोही दोनों का समेकित रूप था. विद्रोही अपने ऊपर बनाये गए वित्तचित्र में एक जगह कहते हैं. आखिर ऐसे मैंने क्या नहीं लिखा है जो तसलीमा नसरीन ने लिखा और उसे निर्वासन की सजा मिली हुई है और विद्रोही खुला घूम रहा है. वह जन कवि यह समझ चूका था कि कबीर की तरह ‘जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ’. वह जानता था कि पूरी दुनिया उसका घर है. किसी को उसकी धरती से बेदखल नहीं किया जा सकता. 2008 में घूमिल के खेवली में हुए जसम के आठवें राष्ट्रीय सम्मेलन में वे मंच के राष्ट्रीय पार्षद बने. उसके बाद से दिल्ली के बाहर भी उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ आदि तमाम जगहों पर आयोजनों और आन्दोलनों में बुलाए जाते रहे. वे संभ्रांत परम्परा के विखंडन के कवि हैं. उनकी संवेदना सदियों से सताये गए गरीबों, मजलूमों, दलितों की वाणी है जो एक परम्परा की माएं ऐसे लालों को जन्म देती हैं जो अत्याचार करने के लिए ही पैदा होता है. वे सदियों के शोषण पर अपना मुकदमा दाखिल करते हैं.  
विद्रोही की कविता हमारे अकादमिक बौनेपन को सीधे-सीधे चुनौती देती है. विद्रोही फक्कड़ और फटेहाल रहते रहे, लेकिन आत्मकरुणा का लेशमात्र भी नहीं रहा उनके भीतर. जब वे कविताओं का वाचन करते तो तथागत लगते. हाँ, उन्होंने कभी बैठकर अपनी कविताओं का वाचन नहीं किया. कविता अपने ‘स्फोट’ में जीवित रहती है. यदि कविता से ‘वाक्’ निकल जाए तो वह निर्जीव हो जाएगी. आज की हिंदी कविता को यही प्राण देते रहे विद्रोही. उनकी कवितायेँ उसकी वाचिक परंपराऔर सामूहिकता के स्वर के साथ अपवंचित लोगों की मुक्ति की कवितायेँ हैं. उन्होंने घरबार की औरतों की पीड़ा को सिद्दत से महसूस किया था. उनके चाहने वालों ने नई खेतीनाम से उनकी कविताओं का संग्रह भी छपवाया था. उनकी एक वाचिक लम्बी कविता है मोहन जोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से...कविता में वे कहते हैं :
मैं साइमन, / न्याय के कटघरे में खड़ा हूँ
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दें / मैं वहां से बोल रहा हूँ
जहाँ मोहनजोदड़ो की अंतिम सीढ़ी है
जिसपर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है[2]
कविता की अभिजात्य परम्परा से कोसो दूर वह कविता का खुरदुरा व कंटीला रास्ता चुनते रहे, कहते रहे मैं तुम्हारा कवि हूं. आज के समय का अत्यंत दुर्लभ कवि जो कविता में बतियाता रहा, रोता रहा, गाता रहा. चिन्तन करता रहा, भाषण देता रहा, बौराता रहा, गरियाता रहा, संकल्प लेता रहा, खुद को और सबको संबोधित करता रहा. उन्हें मिथकों का पूरा ज्ञान है. वे इतिहास कि कमजोरियों को भली भांति जानते थे. वे उस झूठे इतिहास और उसके बोध को सड़क पर लाकर निहत्था करना चाहते थे. वे मार्क्स को समझते थे. वे यह भी समझते थे कि दुनिया का पेट प्यार से भरेगा. मार्क्स कभी हिंसा कि बात नहीं करते थे. सामन्तवाद के उदय को वो कितना सहज समझा देते हैं:
इतिहास में पहली स्त्री की हत्या / उसके बेटे ने अपने बाप के कहने पर की
जमदग्नि ने कहा कि वो परसुराम / मैं तुमसे कहता हूँ कि अपनी माँ का वध कर दो
और परसुराम ने कर दिया / इस तरह से पुत्र पिता का हुआ
और पितृसत्ता आयी / तब पिता ने अपने पुत्रों को मारा
जान्हवी ने अपने पति से कहा / कि मैं तुमसे कहती हूँ कि
मेरी संतानों को मुझ में डुबा दो / और राजा शांतनु ने अपनी संतानों को
गंगा में डुबो दिया / लेकिन शांतनु जान्हवी का नहीं हुआ
क्योंकी राजा किसी का नहीं होता है / लक्ष्मी किसी की नहीं होती है
धर्म किसी का नहीं होता है / लेकिन सब राजा के होते हैं
गाय भी, गंगा भी, गीता भी और गायत्री भी 

देश की राजधानी के राजपथ को ठेंगा दिखाते हुए वह जनपथ का ऐसा कवि जो इसी जनपथ पर अपनी चप्पलें घसीटता रहा और हर आंदोलन की अगली कतार में सशरीर मौजूद हुआ. दिल्ली में रहते हुए भी उनके अन्दर उनका गांव जीवित था. उन्होंने अवधी में भी कविताएं लिखीं. इस बात का दुख है कि उनकी ढेरों अवधी रचनाएं संरक्षित नहीं की जा सकीं. वे विद्रोही के साथ सदा के लिए खो गयी. नितिन के पमनानी ने उनपर एक डाक्युमेंटरी फिल्म बनाई थी-मैं तुम्हारा कवि हूँजिसे मुंबई के अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में अन्तराष्ट्रीय स्पर्धाश्रेणी में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार मिला था. उनके लिए कविता सिर्फ 'शब्दों की जुगाड़बाजी' नहीं थी. वे जैसा जीते थे वैसा रचते थे.  जब वे मुँहजबानी बेबाकी के साथ धारा प्रवाह कविता पाठ करते थे तो लगता था जैसे कोई मंजा हुआ शिल्पकार पत्थरों पर हथौड़े से प्रहार कर रहा है. जनवादी संघर्ष में उनका रचनात्मक योगदान अविस्मरणीय है. उनकी एक छोटी कविता याद आ रही है -
"मैं किसान हूं / आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं / कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूं, पगले! / अगर जमीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है / और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा / या आसमान में धान जमेगा."
 स्त्री अपने होने की, स्वंय के अस्तित्व  की तलाश करती नजर आती है. वह पुरुष प्रधान समाज में घर, परिवार, प्रेम, रिश्ते-नाते सम्बन्धों में अपने स्थान को ढूंडती है. वह सदियों से किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रही, या फिर उसे रहना पड़ा , या उसे वैसा रहने के लिए बाध्य किया गया. उसे पिता, भाई, पति, पुत्र के सहारे जीवन जीना पड़ा. वह एक ही साथ स्थापित और निर्वासित होती रही है. बचपन से लेकर विवाह तक माता-पिता के घर और विवाह के बाद पति का अनजाना घर.  वह प्रत्येक एकांत समय महसूस करती रही कि मैं कोन हूँ ? मेरा स्थान क्या है ? मेरा अस्तिव क्या है ?
मेरी माँ को, मेरी बहन को, मेरी बीबी को / मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिने आसमान से आर्तनाद कर रही हैं
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर / सिर पटककर जान दे देता अगर
मेरी एक बेटी न होती तो ..... / और बेटी कहती है कि पापा तुम बेवजह परेशान होते हो
हम लड़कियाँ तो लकड़ियाँ होती हैं / जो बड़ी होने पर चूल्हें में लगा दी जाती हैं[3]
उसे प्रत्येक अवसर पर  घर रूपी पिंजरे में कैद तोते की  भांति जीवित रखा गया था. जब-जब उसने चौखट  लांघने की कोशिश की, या पुरुष के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठायी, तब-तब उसे प्रेम से या क्रोध से पुन: अँधेरी खोह में धकेल दिया गया. उसमें हीरे की भांति चमक तो थी पर उसके लिए बहार की दुनिया प्रतिबंधित थी. प्रत्येक अवसरों पर उसकी चाहत को दबा दिया गया था. वास्तव में उसे चाहने लायक रखा ही नही गया था. कभी उसे देवी  बनाकर उसके पैरों को जकड़ा गया तो कभी उसके शरीर को आघात पहुँचा कर अनंत काल तक सहन करने के लिए छोड़ दिया गया था
वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं
प्रणय कृष्ण लिखते हैं कि विद्रोही के व्यक्तित्व और उनकी कविताओं को चाहना शहराती और अपवर्डली मोबाईलसंवेदना के लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल हो सकता है, चाहे वे स्वयं साहित्य के सर्जक ही क्यों न हों, पर जब तक लोग अपने भीतर झांककर अपनी आलोचना का रुख न अपनाएँ, विद्रोही से घृणा या हद से हद ईर्ष्या ही कर सकते हैं. निधन के समय उनकी उम्र मात्र 58 साल थी. 1980 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आए. 1983 के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकाल दिए गए. 1985 में उनपर मुकदमा चला. तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा.
कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता
ख़ुद को नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, और कबीर की परंपरा से जोड़ने वाला यह कवि जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए अब तक अलक्षित रहा है, पर फिलहाल इनकी ख़्वाहिश कैंपस में लौटने की है जहाँ से कविता और ख़ुद के लिए वे जीवन रस पाते रहे हैं. यह वही समय है जब बहुजन और समाजवादी राजनीति का चरम, शिक्षा मध्यम जातियों की ओर आती है. यह वही दशक है जब इस दसक में विद्रोही स्वर या सिंथेटिक कवितायेँ लिखी गईं. यह वही समय है जब कविता में सबाल्टर्न स्टडीज, आइडेंटिटी पॉलिटिक्स, उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर मार्क्सवाद, उत्तर उपनिवेशवाद आदि से कवि गहरे प्रभावित होते हैं. यही समय है जब मध्यवर्गीय अवसरवादी(कथित वामपंथी) की मौकापरस्ती और दोमुहापन कविता में खुलता है. यदि इसे जनभाषा में कहा जाय तो यह वही समय है जब साहित्य के पटवारी अपनी चकबंदी करते हैं और विचारधारा से आक्रांत सगा-सौतेला, चचाजात, भाई-विरादर है या नहीं कि ठीक ठीक पहचान भी.

'मैं अहीर हूँ / और ये दुनिया मेरी भैंस है / मैं उसे दुह रहा हूँ/ और कुछ लोग कुदा रहे हैं
ये कउन (कौन) लोग हैं जो कुदा रहे हैं ? / आपको पता है/ क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है/ लेकिन एक बात का पता / न हमको है न आपको न उनको
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा / हाँ ...इतना तो मालूम है
कि नुकसान तो हर हाल में खैर / हमारा ही होगा / क्योंकि भैंस हमारी है / दुनिया हमारी है!'
जेएनयू में पनपे हिंदी के मठाधीश जाने क्यों उनकी आवाज नहीं सुन पाए. उन कारणों पर ठीक से विचार करना होगा. आखिर यही कि ब्विद्रोही की कवितायेँ आलोचकों की चहेती पत्रिकाओं में नहीं छप पायीं. क्या केवल किसी कि कविता को इसलिए आलोचना से वंचित किया जा सकता है कि वह उनके ग्रुप में शामिल नहीं हुआ. अपने को ग्लोबल मानती हिंदी की मठाधीश आलोचना क्या अंधी, गूंगी, बहरी बनी रही. प्रसिद्ध आलोचक प्रणय कृष्ण ‘नई खेती’ की अपनी भूमिका में लिखते हैं कि विद्रोही कभी जेएनयू के छात्र रहे. इस विश्वविद्यालय में पढ़ने और पढ़ाने वालों तमाम लोगों ने साहित्य में बड़ा नाम किया है. विद्रोही का इनमें शुमार नहीं होता और विद्रोही ने इसकी फ़िक्र भी कभी नहीं की. नामवर जी की एक किताब अभी हाल में आई है-‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’. विद्रोही ने एक दिन मुझसे कहा कि विद्रोही किताब में कहीं नहीं है जबकी आलोचक तो जेएनयू में लम्बे समय तक रहे.[4]

मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है

मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा


विद्रोही पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छद्म से वाकिफ हैं, परंपरा और आधुनिकता के मिथकों से आगाह हैं, विद्रोही की ‘औरत’ शीर्षक कविता की अंतिम पंक्तियाँ देखिये :

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा[5].'
अपनी नानी कविता में जैसा ‘नानी’ का जीवंत वर्णन करते हैं वैसे तो हम सब की नानियाँ याद आ जाएँ हमें. इतना आत्मीय सम्मोहन जहाँ आज रिश्तों में लगातार गिरावट आ रही है विद्रोही के ही बूते रही. निजी जीवन में फक्कड़ वे जीवन के रहस्यों और रिश्तों को ठीक से समझते थे.

विद्रोही खुद को लोगों में घुलाकर कवि बने थे. विद्रोही की कविता आम बोल-चाल से निकली गंभीर अर्थबोध, मुक्ति के भव्य आशयों, महान स्वप्नों वाली कविता है. उनकी कविताएँ इतनी सरल हैं कि उसे कोई भी आम-ख़ास व्यक्ति आसानी से समझ सकता है. विद्रोही ने इस अवधारणा को तोड़ा कि अनपढ़ कविता को नहीं समझ सकता है. वे जानते थे कि आल्हा, सारंगा-बिरजभान, भक्ति काल की कवितायेँ जितनी लोकप्रिय आमजन में रहीं उतना प्रबुद्ध जन उसका आस्वादन नहीं कर पाए. विद्रोही इसलिए अपनी जनभाषा अवधी और भोजपुरी में लगातार गाते रहे. उनकी आवाज जहाँ अवध की धान रोपती स्त्री गीतों से मिलती हैं वहीँ जेएनयू का वामआन्दोलन उनके मन मस्तिष्क में गहरे घर कर गया था. उनकी कविता कबीर की कविता है जो लगातार संघर्ष के दौर से गुजर रही है. विद्रोही के विद्रोह की आग किसी अपवर्डली दुनिया की आग नहीं है. उन्होंने जन से जो कुछ सीखा वही लाकर दिया. सुख उनके कहाँ में हैं. वे बैठकर कविता नहीं सुनाते थे. मगन हो जाते तो सब उड़ेल देते. नहीं तो शांत अपने व्यवहार में मगन रहते.
विद्रोही की कविता को इस बात से समझा जा सकता है कि २७ दिसंबर 2010 के दिन साथी बिनायक सेन उम्र कैद सुनाये जाने के खिलाफ संसद मार्ग पर विशाल प्रतिवाद सभा का समापन विद्रोही के काव्य पाठ से हुआ. आन्दोलन और विरोध सभाओं के दौरान कविता सुनाकर विद्रोही बच्चों की तरह खुश होते थे. यही उनकी उपलब्धि था, यही उनका तमगा, यही पुरस्कार. इसलिए नकली वामपंथ का झंडा उठाये हुए नकली आलोचकों का ध्यान विद्रोही की कविता तक नहीं गया. उनको क्या पता था कि विद्रोही उनके आगे की चीज है. चिन्तक दिलीप मंडल उनकी मृत्यु पर लिखते हैं - रमाशंकर यादव नाम का वह मासूम लड़का सुल्तानपुर, यूपी से पढ़ाई करने के लिए जेएनयू, आया था. व्यवस्था ने उसको पढ़ाई पूरी नहीं करने दी. वह अपनी डिग्री कभी नहीं ले पाया. क्या सब उसकी विद्रोही प्रतिभा से डरते थे? अपने निठल्लेपन का अहसास था उन्हें? अपने बौद्धिक बौनेपन का भी? लेकिन यह तो तुम्हें दिख रहा होगा प्रोफेसर कि एक तरफ अपार लोकप्रियता बटोरे विद्रोही की रचनाएं हैं और दूसरी तरफ़ हैं तुम्हारी किताबें, जो सिलेबस में न हों, तो चार लोग उन्हें नहीं पढ़ेंगे. विद्रोही बिना डिग्री के तुमसे कोसों आगे निकल गया. छूकर दिखाओ. लिखो वैसी एक रचना.. है दम?"         
कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं एक प्रतिरोध है. कविता ठीक ठीक लड़ती और मुटभेड करती है. हर कविता अपने समय में समकालीन होती है जैसे प्राचीन नदी में कोई नई सहायक नदी का पानी. यहीं कविता का व्याकरण भी बदलता है, भाषा, भाव, संवेदना में नई अनुभूति आती है. वो भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल होता हैयह लिखते हुए उदय प्रकाश कविता के उस महत्व को ही प्रतिपादित करते हैं. जैसा कि कहा कविता की बहुत लम्बी परम्परा मौजूद है हमारे आसपास. उसी परंपरा के कवि हैं विद्रोही. विद्रोही विश्व साहित्य यात्रा के सहयात्री हैं. उन्होंने अपनी सीमाओं को स्वयं तोड़ा है. उन्हें शुरू से ही अपने लेखन पर पूरा भरोसा रहा. अपने समय समाज के प्रति सचेत करना, व्यवस्था के सबसे वंचित व्यक्ति की आवाज बनने में उन्हें सर्वदा मजा आया. विद्रोही की कवितायेँ पढ़ते हुए आप गहरे और गहरे उतरते जायेंगे. जैसे किसी ने माथे पर एक ठंडी हथेली रख दी हो. एक ऐसी तड़प जो आग पैदा करती हो. जहां स्त्री नहीं जलती पूरी कायनात जलते हुए अक्षर में बदल जाती है. जलते हुए अक्षर को पढ़ते हुए एहसास सुलगने लगते हैं. 
       सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाकी रह जाती है खून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।

काफ्का ने अपने किसी पत्र में लिखा है कि 'लेखक का एकांत किसी सन्यासी का एकांत नहीं, वह मृत्यु का एकांत है.' और ऐसे ही एकांत,और यथार्थ के संतुलन से विद्रोही ने जो लिखा है, वह समय के पार जाकर सदियों तक हमारी स्मृतियों का हिस्सा रहेगा. अपनी रचनाओं की लय और चाल बनाए रखने के लिए उनकी कलम ने हमेशा मनुष्यत्व पर भरोसा किया है. ऐसे कठिन समय में विद्रोही बिना किसी बनावटी लिहाज के, अपनी निर्भीक लेखकीय ईमानदारी के साथ जीवन को साहित्य के अपने अनूठे शिल्प में रचते हैं और पल-पल हमें नकाबपोश-विभीषिकाओं से आगाह करते हैं.



डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय गया
Mo : 8092330929/8863093492




[1] नई खेती, लम्बी कविता जन-गण-मन पेज ४

[2] मोहनजोदड़ो की अन्तोम सीढ़ी से.., नई खेती, पेज १३
[3] मोहनजोदड़ो की अन्तोम सीढ़ी से.., नई खेती, पेज १४
[4] नई खेती, भूमिका, प्रणय कृष्ण, पेज 3
[5] औरत, नई खेती, पेज २९

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