डॉ. कर्मानंद आर्य की कवितायेँ / Dr. Karmanand Arya’s Poetry/ दलित अस्मिता/Dalit asmita





काठमांडू का दिल
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लड़कियां जो सस्ता सामान बेचकर
लोगों को लुभाती हैं
लड़कियां जो जहाजी बेड़े पर चढ़ने से पहले
लड़कपन का शिकार हो जाती हैं
उन्हीं को कहते हैं काठमांडू का दिल
पहाड़ तो एक बहाना है
उससे भी कई गुना शक्त है वहां की देह
उससे भी कहीं अधिक सुन्दर हैं
देहों के पठार
और अबकी बार जब भी जाना नेपाल
उसका बचपन जरुर देख आना
होटल में बर्तन धोते किसी बच्चे से ज्यादा चमकदार हैं उनकी आँखें
नेपाल में आँखे देखना
थाईलैंड नहीं
जो आवश्यकता से अधिक गहरी और बेचैन हैं
फिर दिल्ली के एक ऐसे इलाके में घूमने जाना
जिसे गौतम बुद्ध रोड कहते हैं
जो कई हजार लोगों को मुक्त करता है
उनके तनाव और बेचैनी से
वहां ढूँढना वह लड़की जो सस्ता सामान बेचकर
जहाज ले जाती है अपने गाँव



मिलन
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पैरों की धूल चढ़कर बैठ जाती है माथे पर
उसे उतारता नहीं हूँ
तुमसे प्यार है तो तुम्हारी धूल भी पसंद है मुझे 
यानी प्यार में सुखी होने के लिए
वह सब करता हूँ जो पसंद भी नहीं
पुरुष का अहंकार नहीं
यह प्यार है
जिसमें बन जाना होता है छोटा
झुक जाना होता है जमीन तक
चलना होता है लंगड़ाकर
गिरकर, और गिरना होता है 
यह प्यार ही है
झुकता हूँ, चलता हूँ, दौड़ता, हांफता हूँ
फिर गिर पड़ता हूँ
गिरकर होता हूँ सुखी
इसी क्रम में चढ़ती है धूल, थकती हैं साँसें
कोई पड़ाव नहीं आता
प्यार के लिए
जाने कितने बरस, जाने कितनी सदियाँ
बीत चुकी हैं
दौड़ रहा हूँ, भाग रहा हूँ 
मिलन की चाह है
अभी तक आधा अधूरा है मिलन

प्रतिमान
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कविता की कचहरी में
हमारे लिखने से कई लोग
संदेह से भर गए हैं कि तुम लिखने कैसे लगे हो
कमजोर है तुम्हारी भाषा
मटमैले हैं तुम्हारे शब्द
अभी तो अक्षर ज्ञान लिया है तुमने
कैसे लिख सकते हो, तुम
सुनहरी सुबह, दशरथ मांझी के हौसले सी होती है
मौसम,
मेरी कॉम जैसा होता है
और मिज़ाज
फूलनदेवी सा
कैसे लिख सकते हो तुम कि तराई की औरतें
अपना देह बेचकर जहाज लाती हैं
भूख ईलाज है धनपशुओं के लिए
कैसे लिख सकते हो तुम

कैसे लिख सकते हो
सताए हुए लोग क्रांति का बीज बोते हैं
भूख से बिलखकर
कविता नहीं लिखी ग्वाले ने
जब बाजार में सजी कविता
वह नहीं था दूधिये का पैरोकार
कैसे लिख सकते हो तुम
परिंदे की उड़ान से बनी
लड़ते आदमी की देहें
बहुत घायल हैं
कैसे लिख सकते हो तुम
कविता हमारी पहचान है
इस इलाके में तुम कैसे ?
अनगढ़ है भाषा
टूटे हुए हैं शब्द
काँप रही है इनकी भंगिमा

माई बाप !
लिखने दीजिये हमें
अभी तो लिखनी है हमें अगली सदी की कविता
हम तैयार कर रहे हैं
संगीत की सुन्दरतम धुन
कला के मोहक रंग
कविता में चाहतों का इच्छित इतिहास
आदमी के आदमखोर होते जाने की पीड़ा
नगर से गाँवों की तरफ
लगातर बढ़ रही धुंध 
हमें लिखने दीजिये पोथी
हमारी यही अनगढ़ता प्रतिमान बनेगी एक दिन
हमारी कविता में

साथ
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पेड़ चाहता है ऊँचा उठे
धरती चाहती है फैले
सूरज चाहता है किसी भी तारे से
अधिक चमकदार और गहरा दिखाई दे उसका चेहरा
हवा चाहती है निर्झर
नदी चाहती है समुद्र से सुन्दर हो उसकी काया  
सड़क चाहती है सभ्यतायें उसकी हमसफ़र हों
मैं मनुष्य होकर
कुछ नहीं चाहता था
सिवाय इसके कि दुनिया बच्चेदार और खूबसूरत बनी रहे
हवा चले तो गीत बजें  
हाथ सलामत रहें तो रोटी का जुगाड़ रहे
सच बोलें तो दोस्त खड़े हों साथ  
तरक्की हो
कसरत करें तो मोहतरमा की सेहत बढ़े 

मैंने वह सब किया है जो मनुष्य होने के नाते करते हैं लोग 
पर आज मुआफ़ी मांग रहा हूँ दोस्त
मैंने अगली सदी के लिए कुछ नहीं किया 
नदियों को पंगु किया
पेड़ों के तोड़ दिए पाँव 
खोद डाला चट्टानों का दिल
और तो और
ड्रग्स तक बेचा है मेरी सदी के लोगों ने

प्रकृति के सहारे जीने वाले मेरे दोस्त
न्याय के कटघरे में खड़े अपने इस दोस्त को बताओ
अगली सदी का मनुष्य किसके पापों की सजा पायेगा   



बंत सिंह
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बेटी ने आबरू खो दी
छाती पर कोयला सुलगाया ‘शरीफों’ ने
जालिम बुरा होता है 
जुल्म सहने वाला और बुरा होता है

बेटी ने आबरू खो दी
यह सिर्फ अखबार की पंक्तियाँ नहीं है
साक्षात मौत है  
सभ्यता के मुहाने पर खड़े मनुष्य की  
धरती की आखिरी चीख
मरुथल की आखिरी प्यास
आँखों की आखिरी नमी
सब सूख चुका है जैसे  
 
बलात्कृत हुई थी पांच नदियों की जमीन
उस लड़की के साथ  
सतलुज, व्यास का रेतीला पथ सूख गया था
रावी एक जगह
झेलम एक जगह
चिनाव दूसरी जगह बार-बार हो रही थी हवस का शिकार

पञ्च प्यारे चीखते थे
मेरा पंजाब लौटा दो
बख्श दो हमारी बेटियों को
उनके आँचल में शूल नहीं फूल ही फूल हैं

2.
    
नदियाँ मर जाती हैं
भले संसार में
चुप रहते हैं मनसबदार
उनका पानी बाजार में तैरता है
टपकता है नसों में

3.

मर जाते हैं लोग   
जिनकी छाती पर रखा हुआ कोयला दहकता है
खून की एक धार धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक
जज्ब होती रहती है
लोथड़े में तब्दील हो जाती है स्त्री योनि
चिता की आग बन जाती हैं बेटियाँ
एक बाप लड़ता है
कटे हुए पैरों को निहारता है बार बार
खून की धार धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक
जज्ब होती रहती है
बंत सिंह लड़ता है
बिखरे हुए खून के धब्बों के लिए गाता है गीत
बेटी की चिता को लेकर घूमता है अपने गीतों में
सुनाता है अपना राग
बचपन के उन लाल सिंदूरी कदमों को सहलाता है
पिता के कई क़दमों में
एक कदम उसका भी था
जिसे दबंगों ने राख बनाकर छोड़ दिया 

(बंत सिंह पंजाब का एक दलित सिख जिसे अपनी बेटी के बलात्कार के प्रतिरोध के कारण सवर्णों ने हाथ पैर काट दिया जो आज भी अपनी न्याय के लिए गीत गाता है)


गाय नहीं बकरी माँ है
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छत्तीस रोगों को काटता है उसका दूध
जब मैं पैदा हुआ, माँ के पीले दूध की जगह
पिलाया गया बकरी का दूध
बकरियां चराते हुए, हमने जाना सहभाव
हमने उन बच्चों को हाथ में लेकर बहुत प्यार किया
हमने जाना स्नेह के लिए
जाति और लिंग की जरुरत नहीं
 
हमारी जीविका का वही रहीं साधन
भूमिहीन मजदूर  
हमारे पास नहीं था खेत
खेत नहीं था तो गोबर की जरुरत नहीं थी
तो कैसी गाय माता
हमने उन्हें देखा हर हाल में प्रसन्न रहना
रुखा-सूखा जो मिल जाय खुश होके खाते जाना
न किसी से ईर्ष्या न द्वेष
न वैतरणी पार कराने की जहमत
वे चाहती नहीं थीं सांस्कृतिक बगावत
सामाजिक भेदभाव
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम

उन्होंने जातिवाद को नकार दिया था
अजीब सहभाव था उनके भीतर
वे त्यागमूर्ति थीं
वे निभाती थीं माँ का रोल
जीते हुए, मरने के बाद और भी
उनकी चमड़ी से हम बनाते थे ढोल
बनाते थे खजढ़ी, तम्बूरा
अपने देवता का स्मरण करते हुए
नदी का आचमन करते थे संगी साथी
अजीब दास्तान है वह हमारी गरीब साथिनें थीं
स्कूल में गाय पर निबंध लिखते हुए
भूल जाते थे हम गाय पर लिखना निबंध
हमें गाय की जगह याद रहता था बकरी का चेहरा
हम बकरी को याद करके
गाय पर लिख देते थे निबंध
बकरी खाती नहीं गाय की तरह विष्ठा
शुद्ध शाकाहारी, खाती है अहिंसक घास
वह रखती है पवित्र होने का अधिकार
हाँ, उसका अस्तित्व मेरा धर्म है
खुल रही हैं गांठे
गाय से ज्यादा बकरी के दूध का उपकार है मेरे भीतर
गाय नहीं, बकरी माँ है


हमरा कहाँ ठिकाना
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हम चमार के
हम लुहार के, नाई, लोधी, भीलवार के
जोगी, कोरी, सैनी, कश्यप
मांझी, धनगर, पासी, असगर
हमरा कहाँ ठिकाना भैया
बड़े हुकुम को जाना भैया

भाग्य बड़ा या बड़ा रुपैया
धर्म बड़ा या डंडा भैया
भूख बड़ी सम्मान बड़ा या
पिटती कुटती अपनी गैया 

वही पहाड़ा, वही सवाल
आजादी में हम बेहाल
हम का करें पढ़ाई भैया
हमने जात गंवाई भैया

कर लेगा क्या शिक्षा-अधिकार
चमड़ी-चमड़ा रहा पुकार
नाली बोले आओ बेटा
देश को स्वर्ग बनाओ बेटा

स्वर्ग बनाया हमने भैया
खाया धक्का हमने भैया

कैसे करें हम देश सुधार
वर्ण क्रम में जब हम बेकार

हमरा कहाँ ठिकाना भैया
मांझी बन लुट जाना भैया



जनरल डायर 
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इस देश में रहकर 
तुम्हारी बहुत याद आती है
जनरल डायर

किसी किसी दिन तो हद से अधिक 
सच कहूँ 
तुम्हारा स्मरण देशद्रोही बनाता हो 
ऐसा कभी नहीं सोचता मैं
राजसत्ता के बहाने 
दमन के रास्ते याद आता है तुम्हारा तेजवान चेहरा
सुशासन, सुराज्य, सुदिन 
तुम्हारी भी प्राथमिकता थी 
और भी कई थीं तुम्हारी प्राथमिकतायें
होती हैं जब अनगिनत हत्यायें सुशासन के लिए 
सुराज्य की आकांक्षा से
तुम्हारे बहाने सत्तावाले, सुशासनवाले, सुराज्यवाले 
बहुत याद आते हैं
इस देश में रहकर 
तुम्हारी प्रासंगिकता बनी रहती है जनरल  
तुम्हारी वर्दी
किसी पुलिसवाले की वर्दी देखकर याद आती है 
यह खाकी रंग
कितना जानदार हथियार है

तुम्हारा सीना तो नहीं नापा मैंने 
लेकिन प्रधानमंत्री के सीने से बिल्कुल कम नहीं होगा 
तुम्हारे सीने का आयतन
तुम्हारी आँखों में झांककर तो नहीं देखा मैंने 
पर डेविड कैमरून से क्या कम नीली रही होंगी तुम्हारी आँखें
वो जादूगर
तुम्हारी आँखों के जादूगर आज भी हैं देश में 
हत्या और सुदिन का सपना एक साथ दिखाने वाले
तुम्हारी याद ताजी कर जाती है 
सायरन बजाती हुई गाड़ियाँ 
एक साथ एक दो तीन चार पांच 
अस्सी नब्बे गाड़ियों में लदे तुम्हारे घोड़ेवान सिपाही
सोचता हूँ तुम्हारा होना कितना प्रासंगिक है
आज भी  
जब देश के सत्तरप्रतिशत नागरिक
आजादी का हठ किये बैठे हों 
वे अपनी भाषा सभ्यता संस्कृति की तलाश में मर रहे हो रोज
वे चाहते हों उनका जंगल जमीन बचा रहे
उस समय भी तुम जब अपनी पुलिस को आदेश दे रहे हो
फायर ...........
ओ जनरल डायर


चमड़े के बारे में सोचना 
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इक्कीसवीं सदी में 
जब दुनिया चाँद के बारे में सोचती है 
तब हम सोचते हैं 
सिर पर लदे हुए चमड़े के बारे में
इक्कीसवीं सदी में 
जब दुनिया चाँद पर जाती है
हम जाते हैं कसाई खाने
आज जब किसी का रंग पहचानना कठिन है
एक वर्ण दूसरे को लील रहा है
तब हम कछुए की तरह चमड़े को फैला रहे हैं
रंग रहे हैं मालिकाना रंग में
मलिकनी भावों में उतार रहे हैं सुन्दर ख्वाब  
जब कोई नहीं सोच रहा
तब हम सोच रहे हैं 
कैसे होगी , कृत्रिम विस्तारित चमड़े की दुनिया
हमारी सोच का विस्तार है चमड़ा 
हमारे देश की देह
हमारी देह की थिलगियाँ हैं चमड़े का रंग
चमड़े का ज्ञान हमें बनाता है बुद्धिमान
हमारा वेद, पुराण, गीता, संविधान
सब चमड़े का बना है
इक्कीसवीं सदी में हम सोच रहे हैं
इक्कीसवीं सदी से कैसे अगल होगा
बाईसवीं सदी में चमडे का रंग




कवियों 
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लिखो, तुम सत्तर प्रतिशत
गरीबी रेखा से नीचे भुक्कड़
खा रहे हो देश का सारा अनाज

लिखो, यह तुम्हारा आठवां बच्चा है
जाने और कितना पैदा होंगे
सूअर !!!
लिखो, तुम पैदा ही होते हो
मजदूरों की जमात बनाने के लिए

भूख से बिलबिलाना
तुम्हारी पीढ़ियों की आदत है

लिखो, तुम सूअर खाकर
जोतते रहोगे हमारा खेत

गाली खाने के लिए पैदा होती हैं तुम्हारी बेटियां 
मुफ्त का पानी और
अन्तोदय के अन्न से सड़ गई हैं आंतें

लिखो, यह जो आरक्षण के बल पर
चिल्ला रहे हो तुम लोग
हमने दिया है तुम्हें भीख में

लिखो, यहाँ जीना दुश्वार है गरीबों का
उन्हें मिलता नहीं भरपेट भोजन

पर मालिक, जानता हूँ तुम लिखोगे
मनरेगा से गरीबों का भला हुआ है
साठ साल से अनाज बांटकर
हम ख़त्म कर रहे हैं गरीबी

तुम लिखोगे
गरीबी दूर होनी चाहिए
भुखमरी दूर होनी चाहिए
सबको मिलना चाहिए न्याय

और तुम्हारा दोस्त कहेगा
बहुत अच्छी कविता है पंडित!!
बधाई !!

कविता में सच कहीं बिलबिलाता रहेगा
तुम डकार मारकर फिर लिख दोगे कोई कविता

अंतिम अरण्य
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मैं चौराहे पर खड़ा
एक नंगा व्यक्ति हूँ  
जिसे दिशाएँ लील लेना चाहती हैं
जिसके पास स्वयं को ढकने के लिए आवरण नहीं
जो तलाश रहा है आज भी एक वस्त्र
सूखे हलक में दबी हुई आवाज  
जो कह रहा है
मेरे केश क्यों कटवा दिए गए
मेरा जनेऊ कहाँ है
मेरा ह्रदय क्यों बदल दिया गया
मेरी आँखें कहाँ है
अपने संबंधों और परिस्थियों से लड़ते हुए
वे खंडित पात्र कहाँ है
कहाँ है सुन्दरी
कहाँ हैं मैत्रेय सुरा  
कहाँ हैं हमारी स्मृतियाँ
वे बुद्ध कहाँ है
जो सदियों नायक रहे

क्या आप नन्द नगरी को जानते हो
तब आप सत्ता में
एक पिछड़े व्यक्ति का विक्षोभ भी समझते होंगे
कहाँ है वह व्यक्ति
जिसे अपने मौलिक अधिकारों के लिए मर जाना पड़ा   
कहाँ है वह आदमी
जो सदियों से हाशिये पर पड़ा है
कहाँ है वह व्यक्तित्व
जिसे कौन दिशा लील गई

मैं वही मनुष्य, ढूंढ रहा हूँ अपने ही पद चिन्ह !!!


मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह
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मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह
देह से उठ रहा है लावा 
आग फैल रही है चारो तरफ 
जल रहे हैं लोग
धधक रहे हैं अधूरे ख्वाब 
आसमान का कालापन आँख के नीचे उतर रहा है 
धीरे धीरे 
वे जो उनकी मुस्कानों के आदी थे 
खो गए कहीं 
वे जो कहते थे -सुन्दर है तुम्हारी आवाज 
खो गए कहीं 
वे जो मर जाया करती थी अनायास 
वे माएं जाने कहाँ चली गईं
खुशबू उठ रही है मोगरे की 
पिता उठ रहे हैं 
ऊपर ऊपर ऊपर

अज्ञान पीठ
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हमें यह मान लेना चाहिए कि सब चलता है 
और ये कि निकारागुआ नहीं है ये 
जहाँ कविता के रखवालों को लटका दिया गया सलीब पर
और उनके मर्तबान से सिर को प्रदर्शित किया गया इत्तिहादे चौक पर 
कम से कम वे फलिस्तीनी दोस्त 
जो कविता के लिए कुर्बान हुए 
उनके पास झूठा प्रतिरोध नहीं था 
उन्हें कविता के लिए तो नहीं मारा जाना चाहिए था 
कविता का खून आजादी का खून होता है 
कविता के लिए देश बदर 
यह भी घिनौना अपराध है मण्डलोई जी 
पर ये भारत है 
जहाँ कविता पर मृत्यु नहीं पुरस्कार मिलता है 
और कवि पैदा होता है पुरस्कारों के लिए
जाने क्यों यहाँ नक्सली के घर पैदा नहीं होता कवि 
न ही कोई यादव कविता की हिमाकत कर पाता है 
जाने क्यों चाटुकारिता से कविता की उम्र लम्बी होती रहती है 
और कवि मुस्कराता है अकादमिक किताबों में 
हत्यारों की फ़ौज अकादमी से सिंडिकेट तक 
नशे में डूबी हुई कर लेती है वारा-न्यारा 
और अगले दिन घोषणा हो जाती है 
अमुक ने अमुक को 
अमुक पुरस्कार दिलवा दिया
यहाँ सब चलता है 
यह निकारागुआ नहीं है



पीढ़ी दर पीढ़ी
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हम ख़त्म हो जायेंगे
हमारी लड़ाइयाँ ख़त्म होती जाएँगी
हम प्रकृति के खिलाफ लड़ेंगे
अन्याय का तंतु तोड़ 
ईश्वर से बार बार होगी हमारी जंग

हम जीतने के लिए लड़ेगे
बलवान है प्रकृति
ईश्वर ने अपने हाथ मजबूत कर लिए हैं
हम अनुभव के लिए लड़ेंगे
हम लड़ेंगे
लड़ना खुद को मजबूत करना है 

जैसे बादल चीखता है
फैले हुए आकाश के भीतर
जैसे रात भन्नाती है
वैसे ही एक रोज हम समवेत भन्नायेंगे
सुनेगे धरती के सारे जीव  

इस तरह ख़त्म होंगे हम
और अपनी पीढ़ियोंको बताएँगे
तुम भी इसी तरह ख़त्म होना
मेरे बहादुर बच्चे
निरंतर युद्ध लड़ते हुए

जो बुद्ध ने लड़ा
जो कबीर ने लड़ा
जो सेना नाइ लड़ता रहा जीवन भर
जो कोलंबस के पैरों में चुभ गया
जिसे इक्कीसवीं सदी के दशरथ मांझी
लड़ा जीवन समझ

तुम भी लड़ना
जीवन सदियों तक चलता है
हमारी लड़ाइयाँ कभी खत्म नहीं होती



वे कभी राजा नहीं होते
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जो सत्य, अहिंसा, अस्तेय
अपरिग्रह की बात करते हैं
जो माया की बात करते हैं
जो ईश्वर विश्वासी होते हैं
जिन्हें आता नहीं छल छद्म
जो कर देते हैं अकारण क्षमा
वे कभी नायक नहीं होते
वही लोग पैदा करते हैं
दुनिया में नरक 
               
नरक भक्तों की देन है !
जानता है भगवान 


असमय नदी
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कई हजार लोग थे उसके साथ
वह मुस्करा रहा था, और आगे बढ़ता जा रहा था

उसके लोगों का पेट भरा हुआ था
वे डकार मार रहे थे
ढोल और मांदर बजा रहे थे
कुछ अपनी तोंद को, फुरसत से सहला रहे थे
कुछ चलते-चलते, कर रहे थे, वेद-पुराण की बात

हर आदमी अपने में ही मस्त था
एक कह रहा था
उस आदिवासी कवयित्री की कविता में दम है
जो अपने मेमने को दूध पिला रही है
दूसरा कह रहा था
उसकी जांघे तो देखो 
कोई कविता की पंक्ति लगती है
इस पर पाठका आयोजन होना चाहिए
इसे अपना ज्ञान पीठ दे दो
एक नामवरबोल रहा था
इसे लोक और शास्त्र का द्वंद्व समझ लो
समझा रहा था कोई मैनेजर 

हर किसी के पास काम था
हर किसी के पास तारीफ़ का पुल
हर कोई बिजी था

ठीक उन हजार लोगों के पीछे
कुछ हजार लोग
जो छल-छद्म का भी नहीं जानते थे
भूख को आस्वाद पर रखकर रो रहे थे

उस समय बह रही थी असमय नदी
उसी में अनवरत हो रहा था रक्तस्राव

अगली पीढ़ी लड़की
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हमारी कोई ब्रांच नहीं है
हमारी कोई सीरीज नहीं है
हमारी कोई श्रृंखला नहीं है
हम इस दुनिया में बिलकुल अकेली हैं
हमसे मिलना तुम
हम लड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम दौड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम काम करती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम असंगठित मजदूर हैं
सभाभवन की
जहाँ दहाड़ती हैं राजा की आवाजें
मुखविर हैं काली मूछें 
हम चुहियायें हैं व्यवस्था की 
हम अठारह से चौबीस हैं
हमारी किताब की गिनती ख़त्म हो जाती है चालीस बाद
लोगों को पसंद नहीं आते हमारे सूखे स्तन 
जैसे चंद्रमा उतरता है
काली अँधेरी नदी में वैसे ही उतर जाती हैं हम
वैसे उतरती है हमारी उम्र 
हम सेब नहीं रह जातीं
हम अनार नहीं रह जातीं
हम कटहल हो जाती हैं भाषा में
हमें खाती जाती है हमारी चिंता 
सुनो बाबू !
ये जो तुम रात भर खेलते हो हमारे साथ लुकाछिपी
करते हो मर्यादा तार-तार
बनाते हो पतनशील
पत्नी और वेश्या को एक साथ मिला लेने का करते हो स्वांग
प्रेमिकाओं के तलछट पर रगड़ते हो माथा
यही वे करने लगें
तब बताओ क्या कहोगे तुम
क्या करोगे तुम जब बगावत की वेदी पर डाल दें वे
गंदी सोच का कूड़ा
जो पतनशील हैं
वे ज्वलनशील हो गई हैं इन दिनों  
वही व्यवस्था की जंजीर तोड़कर
जी रहीं हैं काठ का जीवन

हम वही हैं हमारी कोई ब्रांच नहीं है
नहीं है हमारा संघ
नहीं है हमारी शाखा !!



 वसीयत
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सबने कहा
वह आकाश सी है
मैं बादलों के पार चला गया उससे मिलने
सबने कहा वह झील सी है
मैं पंडुकों की तरह तैर आया नदी
किसी ने कहा वह ओस की पहली बूंद की तरह है
मैं हथेलियों पर इकट्ठा करता रहा पराग 
किसी ने कहा वह हार की तरह लगती है
मैंने दुलार पा लिया खुद में
किसी ने कहा धनिये के फूल की तरह जामुनी है वह
मैं भौरें की तरह खोया 
किसी ने कहा वह नींद है, किसी ने कहा हँसी
किसी ने कहा वह चाँद की चिकनाई है
किसी ने कहा मलहम 
मैंने उसे कई बार देखा है
गरीबी में वह और भी सुन्दर दिखाई देती है




सीपियों को नहीं चाहिए शंख
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नदी को चाहिए समुद्र
हवा को चाहिए बागान
खुशबुओं को चाहिए स्वस्थ्य नाक
आकाश चाहिए पक्षियों को
पर सीपियों को नहीं चाहिए शंख
शंख चाहिए पण्डितों को
युद्ध कामियों को चाहिए शंख
दलालों, मठाधीशों को पड़ती है उसकी जरुरत
एक ही परिवेश में
जन्मते हैं सांप भी नेवले भी
एक ही परिवेश में जन्मते हैं कायर और क्रोधी
ठग-ठगहार
दुनिया में जातियों का संजाल बिछा है
एक परिवेश में एक दूसरे से अनभिज्ञ
किसी को छोटा नहीं चाहिए
छोटा होने पर जात छोटी हो जाया करती है


नवजागरण
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एक नाई ने जब लिखनी चाही अपनी पटकथा
स्याही ख़त्म हो गई
एक तमोली ने
जब लाल करने चाहे अपने होंठ
उसका बीड़ा छीनकर खा गए सामंत
एक पासी ने जब लड़ने से इनकार कर दिया
दबंगों ने काट दिए उसके हाथ
चमारों ने एक समूह बनाया
वे बेगारी नहीं करेंगे भूख की कीमत पर
तालाब का पानी पीने का हक मिलना चाहिए उन्हें भी
ठीक उसी समय
‘ब्राह्मण’ पत्रिका का सम्पादक
कह रहा है अपने लोगों से
‘चार माह बीते जजमान, अब तो करो दक्षिणा दान’
हम कैसे नवजागरण में थे खुदा
जहाँ पीने का पानी नहीं नसीब था इंसानों को
जहाँ हर गली में
विश्वविद्यालय की जगह ताजमहल बनाया जा रहा था 





इक्कीसवीं सदी के अंत में
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मंगरू तुम्हारे हिस्से की जमीन खोद रहा है
तुम उसके हिस्से का ले रहे हो अक्षर ज्ञान
मंगरू पीठ पर लाद रहा है अनाज
तुम दानों को रूपये की तरह गिन रहे हो
मंगरू अभी अभी निकला है शहर
तुम्हारे बड़े भाई ने उसे काम पर लगा लिया है
मंगरू ने पगड़ी बाँध ली है
खिल उठा है तुम्हारा माथा
मंगरू तुम्हारे लिए मरता है, मिटता है
कैंसर हो जाने तक आह नहीं करता
मंगरू तुम्हारे हिस्से में
अभी तक बटाईदार नहीं बना
तुम खुश हो मंगरू खुश है
और क्या चाहिए अच्छी दुनिया के लिए
क्योंकि अच्छी दुनिया में
सब निर्धारित है
सब नियोजित
जबकि मंगरू इंसानों से अधिक जानवरों के बारे में जानता है


बेहतर दुनिया के लिए
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माँ के पेट से मरघट तक
कई अनुष्ठान सीखे हैं हमने
छाती ठोककर सरेआम
पटका है तथाकथित पहलवानों को
वे दिन गए जब वे अखाड़े में जीत जाते थे भौंहें हिलाकर
भय दिखाकर खेल खेललेते थे कुश्ती का
पर उन्होंने हमारा धोबियापाट नहीं देखा था
अखाड़े में वे अकेले शिक्षित थे
मिट्टी उनके जबर खेत से लाई जाती थी
चना उनके खेतों में उगता था
गायें उनके घरों में ब्यातीं थीं
उनके खलिहानों में कई औरतों का रक्त चूस लिया जाता था
तब भी वे चुप रहती थीं
उन्हीं का बल था उनकी भुजाओं में
अब वही मिलते हैं अपने पुराने अहाते में
तो बाअदब पूछते हैं
कैसे हो राकेश बाबू
कैसे चल रही है आपकी नूरा-कुश्ती
किसी चीज की कमी तो नहीं
यहाँ के पटवारी आपसे बहुत डरते हैं
मेरे बाबा भी लड़ा करते थे, नामी पहलवान थे
पर अब वे दिन कहाँ
अब तो रहना दूभर कर दिया है नए कठमुल्लों ने 
मैं कहता वह जमाना दूसरा था
अब जमाना दूसरा है
समय के साथ बदलना चाहिए खुद
सारे समीकरण बदल रहे हैं
गणित तक बदल चुकी है
आइये! अब हम दोनों को सुलझाने हैं सवाल
दुनिया के कई दुर्गुण दूर हुए हैं
स्वस्थ्य मन से लड़ने पर
जो बाकी हैं उन्हें भी हम कर देंगे बाहर 
माँ के पेट से मरघट तक  
हमने जो सीखा है उसी को चरितार्थ करना है
हम मिलेंगे तो बनायेंगे बेहतर दुनिया 




धिक्कार
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सुनो मंडलोई
मुझे नहीं चाहिए किंगफिशर
गुदगुदाती देह
चमचमाती कार
मोहक बड़े स्तन
मुझे नहीं है कैलेण्डर का लालच
गोवा बीच का संधान    
मैं कविता का आदिवासी
देर सवेर उगूंगा किसी पथरीली जमीन पर
वनफूल बन खिलूँगा
बंजर जमीन पर उगाऊँगा गुलाब
मुझे नहीं चाहिए राजकमल   
मुझे नहीं होना तुम्हारे गमले की अकादमी
नहीं चाहिए साहित्यिक दाखरस
सीपी सी नाभि, लक्ष्मी अंकशायन
मुझे नहीं पढ़नी कविता शक्तिवर्धक खाकर  
रसातल में रहकर मुझे बने रहना है आदिवासी
अपनी भुजाओं पर विश्वास है मुझे
मैं कविता का कर्ण
लिखूंगा किसी आदिवासी के अधिकारी होने को धिक्कार
जब वह भूल जाए आदिवासियत
आदमियत के चोले में बन जाए सांप
लिखूंगा जब कोई आदिवासियत के चोले में
बन जाए टट्टू और आँखों पर लगा ले जाबा
लोहे का बस उतना स्वाद पाए
जितना उसे चबा सके
लिखूंगा धिक्कार कविता के अखाड़े में
तुम्हारे कारण ही डूब रही है दुनिया
तुम्हारे कारण डूब रहा है आकाश
और धुंधलके में तुम मदिर मदिर हँस रहे हो
धिक्कार !!!!


अपनी अपनी जाति
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वह जो राजसत्ता का सुख ले रहा है
मुझे दिखाई देता है घोंघा
नथुने उठाकर निकलता है बाहर
और फिर घुस जाता है अपने चेंबर में
उसके चेंबर में क्या नहीं है
क्या वहां दाख नहीं है
क्या वहां गुलाब नहीं है
क्या वहां रोशनाई की कमी है
नहीं भाई, नहीं
सत्ता सब कुछ देती है
विचार वहीं पनपते हैं
वह सभ्यों की चरण धूलि तक लाकर रख देती है
वीणापाणियों को नचाती है
कवि भांड हो जाते हैं उसके सामने 
इसलिये मैं गिद्धों और भेड़ियों से कहता हूँ अक्सर
तुम सत्ता के साथ बने रहना
और एक दिन बुलाना मुझे सत्ता के आगे
और कहना, आओ!
दुम हिलाओ !!!!! दुम !!!
और मैं पाऊंगा
सत्ता के करीब आने की यह चाभी भी
कहाँ खो गई हमारी नस्ल में 



काले अक्षर
.............................

इन दिनों जब हम बोल रहे हैं
मधुरा वाणी
पूरे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करना सीख रहे है
दिमाग में बैठा रहे हैं भैंसीले अक्षर
उनकी बनावट और आकार में हम गा रहे हैं
शिक्षा शेरनी का दूध है और कम है
बता रहे हैं सबको
तब, उनकी छाती फट रही है
खून निकल रहा है
मिर्गी आ रही है
परेशान हैं क्या कर रहे हो भाई
हमारे सतयुग और त्रेता को तुम लूट ही चुके
यह करमजला कलयुग भी न रहने दोगे
देशी दया करो हमपर  
तुम बहुत आगे बढ़ लिए     
हमें दे दो आरक्षण
अगर तुम इसी गति से बढ़ते रहे  
तब एक दिन हम चूहों की तरह दाने चुरायेंगे
और भूख से छटपटायेंगे
बिल्ली करेगी हमारी रखवाली 
तब मैं उन्हें कहता हूँ
सोचो, जिसने सदियों तक संताप सहा है
और अक्षर देख नहीं पाए अपने कुनबे में
उनसे पूछो
अक्षर कैसे दिखाई देते हैं
कैसी खुशबू आती है उनसे
उनका पानी कितना मीठा है
और उससे भी आगे
नई सदी में वे हीरों से भी ज्यादा चमकदार क्यों हैं  
 

 अंधेर
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जब अँधेरा ख़त्म हो जाएगा
तब, हमारा युग आएगा
ह्म्मारा...............

जब भेदभाव साँसे गिन रहा होगा
ठीक उसी समय, हमारी मुक्ति की सूचना प्रसारित होगी
होगी हमारी मुक्ति........

हजारो सूरज मर जायेंगे
तब अच्छे दिन आयेंगे

‘गबर घिचोर’ में भिखारी ठाकुर ने यही लिखा था
‘अछूत की शिकायत’ में थे
कुछ इसी तरह के भाव
‘रोहित वेमुला’ के शब्द
क्या इससे अलग थे
जो अभी तक गूंज रहे हैं समुद्री लहरों में

आंकड़े बहुत बड़े हैं
और हम दीर्घजीवी
लक्ष्मनपुर बाथे की गलियों में
सुनाई देते हैं इसी तरह के शब्द

‘यह कितना बड़ा अँधेरा है’
‘यह कितनी बड़ी रात है’
कांटे खत्म नहीं होते
चुभते हैं नुकीले फन 

क्या आपने ‘सैराट’ देखी है
जिसमें ‘भाषा’ से अधिक ‘भाव’ पिटता है
एक लहर दूसरी लहर से कहती है
किनारे लगकर हमारा यह उद्वेग भी ख़त्म हो जाएगा बहिन

आज मैले लोगों को 
पीने का पानी उपलब्ध है
धूप और हवा पर वंचितों को मिल चुका है अधिकार
यह ‘महाड़’ से आगे का समय है
उस अँधेरे के ख़त्म होने का इन्तजार है
जो आज भी दिलों में
ओपरेशन का ख्वाब देखती है और जिन्दा रहती है 







डॉ. कर्मानंद आर्य 
पिता : श्री सहदेव राज, माता : श्रीमती सुगना देवी
स्थाई पता : ग्राम-छपिया, पोस्ट-गोविन्दपारा, जनपद-बस्ती, उत्तरप्रदेश-272131
शिक्षा : एम.ए-हिंदी, पी-एच.डी. (हिंदी, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार), यूजीसी-नेट-जेआरएफ
सम्प्रति : दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में सहायक प्राध्यापक
विशेषज्ञता/अभिरुचि : भारतीय काव्यशास्त्र, समकालीन कविता, कथासाहित्य, दलित-स्त्री-आदिवासी लेखन, साहित्य की वैचारिकी, प्रयोजनमूलक हिंदी में गहरी अभिरुचि.
पत्र /पत्रिकाओं में प्रकाशन : शतदल, साहित्य अमृत, आजकल, स्कैनर, दोआबा, दलित अस्मिता, वंचित जनता, कथाक्रम, निरुप्रह, परिचय, प्रभात खबर, भास्कर, जनसंदेश टाइम्स, रेत पथ, तलाश, स्त्रीकाल, अंतिम जन, गुरुकुल पत्रिका, निश्रेयस, सेतु, निःशब्द, शब्द सरिता, मिलिंद, शब्द सरोकार, स्वस्ति पन्थाः आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन, अपने हिंदी ब्लॉग www.uttalhawa.blogspot.com पर लेख, कविता का निरंतर प्रकाशन
शोध-पत्र : हिंदी भाषा और साहित्य की बीस से अधिक पुस्तकों के लिए अध्याय लेखन, विभिन्न अस्मितामूलक संगोष्ठियों, सेमिनारों में विशेषज्ञ वक्ता के रूप में आमंत्रित
पुस्तक प्रकाशन : ‘अयोध्या और मगहर के बीच’ कविता संग्रह, दीपक अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना के तहत प्रकाशित  
संपर्क : +91-80923-30929/943000-5835/ 88630-93492






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