विमर्शों के दौर में मुक्तिबोध होना / डॉ. कर्मानंद आर्य/ Vimarshon ke daur men Muktibodh hona/ Dr.Karmanand Arya
अन्य अनुशासनों
में शोध और अनुसंधान की स्थिति और गति क्या है, मैं नहीं जानता. किन्तु हिंदी में शोध की
गुणवत्ता से हम सभी परिचित हैं. समकालीन दौर में जो विमर्श चर्चा के केन्द्र में
है उनमें आदिवासी,
स्त्री
और दलित विमर्श सर्वाधिक महत्वूपर्ण है. हम सभी लोग इस बात को लेकर खूब दुखी हो सकते
हैं कि आखिर आज के इस अति वैज्ञानिक युग में भी दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यको के प्रति हमारी धारणा घोर
पारंपरिक और प्रतिक्रियावादी क्यों है? उबरने के लिए हम
इन विषयों को केंद्र में रखकर गुरू गंभीर शोध करते और करवाते हैं. मोटी-मोटी
पुस्तकें लिखते हैं. पत्रिकाओं के विशेषांक निकालते हैं, सेमिनार गोष्ठियाँ करते हैं और न जाने
क्या-क्या करते हैं? लेकिन हम इस विषय पर अपेक्षाकृत बहुत कम सोच
पाते हैं कि जिस अवस्था में नवनिर्माण और विचार की निर्मिति होती है, उस समय में हम उदासीन रह जाते हैं. हम
लिखते रचते समय यह ध्यान नहीं रख पाते कि हमारी साहित्यिक सामाजिक बनावट में उनका
भी महत्वपूर्ण हिस्सा है. शोध और अनुसंधान की प्रविधियों में हम उन कारकों की
पहचान क्यों नहीं कर पाते जिनसे इस वंचित समुदायों का वास्तविक भला हो पाए.समय
बदला है.‘विकासशील समाज’ के रूप में लगता है कि आज हम लोकतंत्र
की तरफ एक कदम और आगे बढ़े हैं. निश्चित तौर पर इससे समाज में ‘जनतंत्र’ की प्रक्रिया मजबूत हुई है पर अभी भी बहुत कुछ
होने की जरुरत लगती है.
ओमप्रकाश
बाल्मीकि ‘दलित साहित्य का
सौंदर्यशास्त्र’
में
लिखते हैं कि : सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्ब’ और ‘प्रतीक’ को विद्वानों ने प्रमुख माना है. जबकि सौन्दर्य
के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है. कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा
साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है. साहित्य के लिए वैचारिक
प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं. यदि कबीर
आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक
बनाती हैं. दलित साहित्य के लिए अलग सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी यह एक
अहम सवाल है. इस पुस्तक की रचना प्रक्रिया के दौरान ऐसे अनेक प्रश्नों से सामना
हुआ, जिन पर समीक्षकों
को गम्भीरता से सोचा. कला के नाम पर बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे मनुष्यता शर्मसार
हुई है. उससे उस अंतिम आदमी को कोई फायदा नहीं पहुंचा है जो उसे पहुंचना चाहिए था.
प्रगतिशील और
राजतान्त्रिक साहित्य द्वारा भरत में केवल वर्ग की ही बात करने से उपजी एकांकी
दृष्टि के विपरीत विमर्शवादी साहित्य समाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी
साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है- ऐसी समानता जिसके
बगैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता. विमर्शवादी चिन्तन के नए आयाम का यह
विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारस्परिक और स्थापित साहित्य
को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध. अपने
पुराण साहित्यकारों के प्रति आस्थावान न रह कर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित
साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिसमें जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और
समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है. मुक्तिबोध की रचनायें कहीं न कहीं इन्हीं विमर्शों
से संपृक्त हैं. उनकी रचनाओं में वही अति मानव बार-बार दस्तक देता है. ‘अँधेरे में’
वही छटपटाता रहता है. कहीं कहीं वही ‘ब्रह्मराक्षस’ का रूप ले लेता है जब उसकी
निगूढ़ वृत्तियों की पूर्ति बाधित होती है. कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा
साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है. साहित्य के लिए वैचारिक
प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं. यदि कबीर
आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक
बनाती हैं. हिन्दी समीक्षक रचना के मापदंडों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील दिखाई
पड़ते हैं. रचना का मापदंड क्या हो सकता हो ? कैसे हो ? इसके लिए जरूरी है कि उसके उदगम और भावबोध पर
चर्चा होनी चाहिए. अगर उपरोक्त तथ्यों को आधार मानकर हम मुक्तिबोध की रचनाओं को
समकालीन पाठ प्रस्तुत करें तो वे आज के समकालीन विमर्शों के सबसे नजदीक दिखाई देने
वाले रचनाकार हैं.
कुछ लोग सेतु के बारे में सोचते हैं और
कुछ लोग सेतु बना उसके पार उतर जाते हैं. मैं समझ नहीं पाता कि मुक्तिबोध उन दोनों
लोगों के बीच में कहाँ हैं. जैसे वीणा के स्वर केवल संवादी नहीं होते अपितु उनमें
विवाद के स्वर भी सुनाई देते हैं वैसा ही मुक्तिबोध को पढ़ते हुए कोई संवादी या
विवादी हो सकता है. मुक्तिबोध सरल रेखा नहीं खींचते हैं अपितु एक ऐसा आरेखण करते
हैं जिसमें सर्वहारा मनुष्य का चित्र उभरता है जो जटिल से सरल की तरफ चलता है.
उनकी कविता, कहानी, आलोचना वस्तुतः इसी सेतु के उपक्रम मात्र हैं. उनके रचना समय में चीजें
अस्तित्व में आती हैं, रहती हैं और फिर
भावशून्य में कहीं विलगित हो जाती हैं. जो सार बचता है हम उसी के सहारे नदी पार
करते हैं. उनके यहाँ गंगा का पवित्र जल नहीं है अपितु उन बहुत सारी पवित्र नदियों
का सार है जो गंगा में अपना अस्तित्व नहीं तराशती हैं. जिन्हें पवित्र बनाये का एक
सांस्कृतिक आन्दोलन सक्रिय रहता है. उनके यहाँ जमुना और गोदावरी भी उतनी पवित्र है
जितनी वितस्ता और ब्रह्मपुत्र. वे परंपरा में गैर परंपरा के कवि हैं. नंदकिशोर नवल
लिखते हैं कि ‘ जयशंकर प्रसाद के बाद मुक्तिबोध हिंदी के एकमात्र कवि हैं जिनके
पास विश्वदृष्टि थी. छायावादोत्तर काल में अनेक श्रेष्ठ कवि हुए हैं –गैर
प्रगतिशील और प्रगतिशील भी, लेकिन उनमें से किसी के पास ऐसा सुसंगत दृष्टिकोण
नहीं, जिससे दुनिया की तमाम चीजों को देखा जा सके. प्रसाद और मुक्तिबोध की
विश्वदृष्टि में यह फर्क है कि एक की दृष्टि जहाँ भाववादी थी, वहां दुसरे की
मार्क्सवादी.[1] वे
अपनी रचना में सच को जीने वाले रचनाकार हैं. वे अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखते
हैं कि :
‘कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमग कर जन्म लेना चाहता हूँ फिर से
कि व्यक्तित्वान्तरित होकर
नए सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ सच’’
अभी जब उनकी जन्मशताब्दी का हर्षोल्लास चरम पर है और हम उनकी कविता ‘अँधेरे में’ की पचासवीं वर्षगाँठ मना रहे हैं तो हमारा ह्रदय उनके प्रेम से आपूरित
है. मुक्तिबोध के बारे में बहुत कुछ कहा सुना जा रहा है, बहुत कुछ कहा सुना जायेगा. कुछ प्रतिमान बनेंगे
और कुछ प्रतिमान भंजित भी होंगे. हो सकता है कुछ लोग उन्हें भयानक का कवि कहें, कुछ को उनकी कविताओं में भय और विषाद दिखे, कोई कहे कि उनमें अँधेरे का आतंक बहुत अधिक है या
कोई कह दे उनमें प्रेम और कोमलता बहुत कम है. हम उनकी रचनाओं को कुछ विन्दुओं तक
सीमित कर लेंगे. कुछ भी हो सकता है. कोई उन्हें मर्दवादी, सामंतशाही भी कह सकता है जो निश्चित तौर पर वे
हैं. मुक्तिबोध के अपने कई पाठ हैं जैसे कि किसी भी बड़े कवि के होते हैं. हम उनकी
समस्त रचनाओं को अगर विमर्श के नजरिये से देखेंगे तो हमें एक प्रस्थानबिंदु
निश्चित ही मुक्तिबोध में दिखाई देगा. वे समकालीन दलित, आदिवासी और स्त्री कविता
के आलोक में सबसे सन्निकट के कवि हैं. उनकी रचना का ध्येय भी वही अंतिम मनुष्य है
जिसे समकालीन दौर की विमर्शवादी रचना अपना अक्श देख रही है. कई लोगों ने उन्हें नई
कविता के कवि के रूप में पढ़ा है, समझा है कि उनके ऊपर
प्रारंभिक नेमीचन्द्र जैन का बहुत प्रभाव है जिसके कारण वे अस्तित्ववादी हैं.
मुक्तिबोध ने खुद को मार्क्सवादी कहा तो उन्हें समझने का अंतिम हथियार मार्क्सवाद
को मान लिया गया. हमने कभी नहीं सोचा की वे सदैव मार्क्सवादी तानाशाही का विरोध
करते रहे. हमने नहीं सोचा मुक्तिबोध मार्क्सवाद की तलाश कर रहे थे या अपना
मार्क्सवाद स्थापित कर रहे थे?
मुक्तिबोध कवि कर्म को शुद्ध कविकर्म नहीं
मानते अपितु उसे गहरे सामजिक सरोकारों से जोड़कर देखते हैं. जीवन जगत के बारे में, समाज
के बारे में, कला और साहित्य के बारे में एक कवि की जो दृष्टि और विचार होते हैं,
मोटे तौर पर उन्हें ही हम कवि की जीवन दृष्टि कहते हैं. यही जीवन दृष्टि
जीवनानुभवों, जीवनानुभूतियों के घात प्रतिघात से विकसित और रूपाकार लेती है. हिंदी
के ख्यातिनाम आलोचक ‘नंदकिशोर नवल’ अपनी पुस्तक ‘मुक्तिबोध की कवितायें : बिम्ब
प्रतिबिम्ब’ की भूमिका में लिखते हैं कि ‘चूँकि मुक्तिबोध गहन वैचारिक कवि हैं,
इसलिए उनकी कविता में जो जटिलता है वह मुख्यतः संकल्पना के स्तर पर! बिना उनकी
संकल्पनाओं को समझे हुए, जो उनकी संकल्पनाओं का ढांचा भी तैयार करती है और उसके
भीतर कई तरह से ग्रथित होती है, उनकी कविता की गांठे नहीं खोल सकती. अध्यवसाय
पूर्ण एक बार गाँठ खोल दी जाय तो फिर उन्हीं के मुहावरों में धरित्री अपने रत्न
खोल देती है.[2] सामान्य परिवार के साथ एक
सर्वमान्य, अभावग्रस्त जिन्दगी बसर करते हुए मुक्तिबोध ने अपने जीवन दर्शन का
निर्माण किया था. उनपर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव था और उसी के आलोक में उन्होंने
खुद को संशोधित किया था. कविता को जीवन की अत्यंत मानवीय सृष्टि मानते हुए
मुक्तिबोध ने एक विशिष्ट जीवन प्रणाली का विकास किया था. वे जीवन में विखंडन के
कवि हैं. जीवन और कविता का अत्यंत विशुद्ध और विस्तृत खुलासा उन्होंने अपनी ‘चकमक
की चिंगारियाँ’ में इस प्रकार से किया था :
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की दीर्घ प्रतिमाएं
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलनामय
समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी सुन्दर व शोषण मुक्त कब होंगे?
रचनात्मकता के लिए परिवर्तन जरुरी है और
परिवर्तन के लिए छुपे हुए तत्वों का उदघाटन. लम्बे समय तक चलने वाली इस प्रक्रिया
में तथ्यों के उदघाटन के लिए आपको रुकना होता है, दंश और पीड़ा
भोगना होता है. कई बार ऐसे अनुभव से गुजरना होता है जिसके लिए आप तैयार नहीं होते.
अप्रिय घट जाता है, गरीबी और दुःख में आप दाना मांझी की तरह एक लाश
ढोते दिखाई देते हैं. सांसारिक ताप आपके कंधे को छीलता रहता है. घाव आपको चलने
नहीं देते पर आप रुकते नहीं हैं. आप दशरथ माझी की तरह दुःख का पहाड़ खोदते रहते
हैं. अपनी मेहनत और संघर्ष से रास्ता निकालने की चाहत करते हैं. जीवन में जब कोई
इन्हीं पलों में पीछे मुड़कर देखता है तो वे धब्बों के रूप में हमें नजर आते हैं.
भोगा हुआ सच सामने होता है. कुछ रोज घटता है और अखबारों से लेकर सोशल मीडिया
साइट्स तक वायरल हो जाता है. दुःख, क्षोभ, गुस्सा सब लाइव.
पर इसके बीच कुछ है जो गायब रहता है. वह है हमारी संवेदना. हम आंकड़ेबाजी में खोये
रहते हैं और हमारे चारो तरफ घटनाओं का अम्बार लग जाता है. इन्हीं अम्बारों के बीच
कुछ दुर्लभ व्यक्तित्व होते हैं जो संवेदना को पकड़ कर समाज को संवेदित करते हैं.
वे समाज के पहरुए, कवि या रचनाकार होते हैं. वे दूसरों से थोड़ा
हटकर सोचते हैं. मुक्तिबोध की आत्मविस्तार की यह स्थिति परिवार, ग्राम, पुर और
उसके समूचे प्राकृतिक परिवेश में रमते हुए राष्ट्र और विश्वमानवता के व्यापकतम
छोरों का स्पर्श करती है :
‘’जब इसी गली के नुक्कड़ पर
मैंने देखी
वह फक्कड़ भूख, उदार प्यास
निस्वार्थ तृषा
जीने मरने की तैयारी
बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम, अब
सुनहले उर्ध्व आसान के
दबाते पक्ष में अथवाकहीं उससे टूटी लूटी
अँधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन
कहाँ हो तुम ? (चकमक की चिंगारियाँ)
उन्होंने 'इतिहास और संस्कृति' के नाम से भारत का इतिहास लिखा. जो
बहुत विवादास्पद रहा, जिसको
लेकर मुक़दमेबाज़ी हुई, लेकिन
वह वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया इतिहास है. उनकी डायरी की कई पंक्तियाँ इतनी
सारगर्भित हैं कि लगभग एक वाक्य से ही हम बहुत सारे निष्कर्षों की तरफ़, बहुत सारी अवधारणाओं की तरफ़ ले जाती
हैं. वह अपने आप में ताला भी हैं और कुंजी भी हैं. अपनी रचनावली के पाँचवें खंड में जो डायरी है उसमें एक हिस्से की
शुरुआत इस वाक्य से होती है, "साहित्य विवेक मूलतः जीवन-विवेक है." यह
वाक्य सभी को बहुत अनुप्राणित करता रहा है. इस वाक्य को अगर हम खोलने की कोशिश
करें तो हम पाएँगे कि यह एक पूरा विमर्श है.
मुक्तिबोध लिखते हैं, "साहित्य का
संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक
और सामाजिक. किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है. दरअसल
जनता का साहित्य का अर्थ, जनता
को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं. ऐसा होता तो क़िस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के
प्रधान रूप होते. वह आगे कहते हैं, "तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है. इसका
अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो.
इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है." ‘अंतःकरण का आयतन’ शीर्षक अपनी कविता में
वे दो टूक लिखते हैं कि :
सुकोमल काल्पनिक टल पर
नहीं है द्वंद्व का उत्तर
तुम्हारी स्वप्न वीथी कर सकेगी क्या ?
बिना संहार के, सर्जन असंभव है,
समन्वय झूठ है
सब सूर्य फूटेंगे
वा उसके केंद्र टूटेंगे
समकालीन विमर्शों के दौर में लगता है
मुक्तिबोध जीवन और जीवन में घट रही विसंगतियों को नजदीक से देखने वाले कवि हैं.
उनका सम्पूर्ण वांग्मय सर्वहारा की मुक्ति का साहित्य है. हरिजन, गिरिजन, अभिजन
सबका चित्र उनके साहित्य में एक-एक कर उभरता है. पूंजीवादी शोषण का उन्हें गहरा और
साक्षात अनुभव था. जनशत्रुओं के ‘छुपे या उजागर दलालों’ की वजह से उन्हें बहुत
सारी यातना झेलनी पड़ी थी. उनहोंने ‘ सत्य का गला घोंट....पद-लिप्सु-लोलुप कलम’ की
जहालत देखी थी. ऐसी नपुंसक आलोचना देखी थी जो आत्मा को बेचने में देर नहीं लगाती
है.
मुक्तिबोध ने पूंजीवाद और पूंजीवादी
व्यवस्था से समझौता करने वालों की कटु आलोचना की है. यह आलोचना के गद्य तक सीमित
नहीं है अपितु उनकी कविता में भी इसका सांघातिक रूप दिखाई देता है. वे ‘अँधेरे में’
की प्रसिद्ध पंक्तियों में कहते हैं कि :
कविता में कहने की आदत
नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में मैं चल
नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय
बदल नहीं सकता[3]
कर्म करे जन और उसका फल भोगे वर्चस्ववादी वर्ग.
गीता के शब्द उसे सफ़ेद पाउडर के आवरण में छुपे ‘सभ्यता के चेहरे पर’ बड़े बड़े चेचक
के दाग दिखाई देते हैं. अनेक अनदेखे अनजाने जनों की मर्मान्तक पीड़ा के चित्र उनकी
कविता में उभरते हैं. जीवन का विमर्शवादी नजरिया उनकी कविता में सर्वत्र दिखाई
देता है. इनमें सबसे ऊपर है एक श्रमशील ‘गर्भवती नारी’ का स्मृति-चित्र :
आँखों में तैरता है चित्र एक
उर में संभाले दर्द
गर्भवती नारी का / कि जो पानी भरती है वजनदार घड़ों से
कपड़ों को धोती है भाड़- भाड़
घर के काम बाहर के काम सब करती है
अपनी सारी थकान के बावजूद
मजदूरी करती है / घर की गृहस्ती के लिए ही
पुत्रों के भविष्य के लिए सब
उसके पीले अवसाद भरे कृष मुख पर
जाने किस (धोखेभरी?) आशा की दृढ़ता है[4]
इन्हीं सन्दर्भों को लेकर कवि कई दूसरे प्रश्न भी उठाता है :
करती वह इतना काम
क्यों किस आशा पर ? [5]
कवि के मन में नारी के प्रति अपार श्रद्धा
उमड़ आती है. ऐसा लगता है जैसे मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय सीमाओं को अतिक्रांत कर कवि
को सर्वहारा की एक नई विरादरी मिल गई हो. उनकी कवितायें घर परिवार की कवितायें
हैं. उनसे बनने वाली प्रकृति और साहचर्य उनकी कविता में दिखाई देता है. ‘मुझे याद आते हैं’, ‘मेरे लोग’ ‘चकमक की
चिंगारियां’ ‘ जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’ कविताओं में अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें
परिवार और पड़ोस के लोगों के प्रति किसी काल्पनिक, अमूर्त जनता के प्रति
नहीं-मुक्तिबोध का गहरा स्नेह आत्मविह्वल गेयता के रूप में फूट पड़ा है.’[6]
मुक्तिबोध के जीवन में दुःख कम नहीं था, फिर भी अपने परिवार पड़ोस देश के लोगों को
देखकर उनका मन मस्ती से भर जाता था. यही कारण था कि ‘शोषण की सभ्यता का राक्षसी
रूप’ उसे भयाक्रांत नहीं कर पाता है. दलित-शोषित, सर्वहारा वर्ग की विरादरी उनकी
अपनी है. मुक्तिबोध ने इस वर्ग के प्रति अपना ‘दुर्दांत’ स्नेह प्रकट किया है :
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है[7]
या
फुदकते हैं वहीं दो चार
बिखरते बाल वाले बालको के श्याम गंदे तन...
चमकती धूप में
मुझको है भयानक ग्लानि
निज के श्वेत वस्त्रों पर / स्वयं की शील शिक्षा सत्य दीक्षा के
विरोधी अस्त्र शस्त्रों पर[8]
या
समस्या एक –
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव / सुखी, सुन्दर व शोषणमुक्त
कब होंगे?[9]
मुक्तिबोध मेहनतकश वर्ग के साथ अपने व्यक्तित्व
का तादात्म्य करना चाहता है. तारसप्तक काल में ही मुक्तिबोध क्रांति का सशक्त रूप
देखते आये थे. वे चाहते थे कि ‘ज्वालामय मेघों का प्रभंजन’ उठे क्योंकि रचना का
उत्स रचने में उतना नहीं जितना तोड़ने में है, पुराने सांचों को तोड़ने में :
बिना संहार के, सर्जन असंभव है
समन्वय झूठ है
सब सूर्य फूटेंगे
व उनके केंद्र टूटेंगे
उड़ेंगे खंड
बिखरेंगे गगन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र
उनके नाश में तुम योग दो [10]
ठीक यही विचार आज के विमर्शवादी साहित्य में भी
दिखाई देता है. इटली के महाकवि दांते अपने प्रसिद्ध महाकाव्य ‘डिवाइन कामेडी’ में
अपने राजनीतिक विरोधियों को नरक में डाल देते हैं. मुक्तिबोध ने अपनी कविता ‘मृतदल
की शोभायात्रा’ में कुछ इसी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति की है. यह उस दल की
शोभायात्रा है जो ऊपर से देखने में जीवित है पर भीतर से कहीं मर चुकी है. एकदम
खोखली और मुर्दा. इस व्यवस्था में जुड़े हुए बहुत सारे लोगों को मुक्तिबोध ने जगह
दी है. शहर के बड़े-बड़े उद्योगपति, मंत्री, विद्वान्, फौज के बड़े बड़े अफसर. इसमें
शहर के गुंडे हैं, जैसे ‘हत्यारा, कुख्यात डोमा जी उस्ताद’ और ‘प्रकांड आलोचक,
विचारक, जगमगाते कविगण. भ्रष्ट व्यवस्था में ये सब बीके हुए हैं. फिर भी कवि लिखता
है :
‘सब चुप
साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक.
एक ऐसी व्यवस्था जहाँ हर कोई बिका हुआ है.
घर परिवार और समाज पर सामंती संस्कार
हावी है. इन संस्कारों के तले लोग ऐसे दबे हुए हैं जैसे किसी ‘ढहे हुए मकान के
नीचे दबे’ पड़े हों. कवि के अनुसार ऐसी व्यवस्था का ढह जाना ही बेहतर है:
पुराना मकान था, ढहना था ढह गया
बुरा क्या हुआ?.....
बहुएँ मुंडेरों से कूद अरे!
आत्महत्या करती हैं!!
ऐसा मकान यदि ढह पड़ा,
हवेली गिर पड़ी, महल धराशायी, तो
बुरा क्या हुआ!!![11]
इन पाँच दशकों में शायद हिन्दी के
प्रत्येक कवि ने मुक्तिबोध को हमेशा ही अपनी स्मृति में रखा है. जाने कितने रचनकार
उनसे आज भी प्रेरणा ग्रहण करते हैं. उनकी रचनायें विमर्शों के केंद्रबिंदु में
मानी जाती हैं. मुक्तिबोध का जो पूरा रचनाकर्म था, जो सृजनधर्मिता थी वह हिन्दी के लिए गौरव की
बात है. उनकी कविता ‘'झरने पुराने पड़ गए' का अंश उनकी रचना धर्मिता को स्पष्ट
करती है :
झरने पुराने पड़ गए / उनकी उपमा अब कोई नहीं
देता
शायद धोबी दें, / जो वहाँ कपड़े फचीटते हैं,
या किसान/ जो उसमें फंसी हुई गाड़ी घसीटते हैं
लेकिन
वो सभ्य नहीं हैं / इसलिए झरने की उपमा अब लभ्य
नहीं है
फिर भी मैं झरने की उपमा ज़रूर दूँगा
उस सुदूर को / जो बहता हुआ हमारी ओर आ रहा है
हमारे पास लगातार आ रहा है
इसलिए नहीं कि हम नदी या तालाब हैं,
जिसमें मिल जाएगा / बल्कि इसलिए कि हम वे टीले
हैं
जिन्हें घाव-ही-घाव हैं/ टूटे हैं तड़के हैं / फिर भी ठहराव है
मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं
जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएं आरम्भ की और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता की
युगधाराओं से जुड़ते हुए काव्य में ऐसी काव्य भाषा और शिल्प का प्रयोग किया जो
आगामी रचनाकारों के लिए बहुत बड़ा प्रेरणा स्रोत बनी. मुक्तछन्द की सटीक व कठिन
किन्तु सहजग्राह्य भाषा के प्रयोग के लिए उन्हें कबीर तथा निराला परम्परा को
अग्रसर करने वाला काव्य प्रेरक माना जाता है. सामाजिक बदलाव की हलचल में कुछ ऐसे
लोग भी दब मर जाते हैं जो उस व्यवस्था के पोषक नहीं थे. वे मर गए क्योंकि उनमें अपेक्षित
मात्रा में जर्जर व्यवस्था के प्रति विद्रोह की चेतना नहीं थी. उन्होंने बदलाव में
ठीक ठीक योगदान नहीं दिया :
ठीक है हम भी तो दब गए
हम जो विरोधी थे / कुँओं तहखानों में कैद बंद
लेकिन, हम इसलिए / मरे कि जरूरत से
ज्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम / हम बागी थे
*डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार-८२३००१
मो.
०८०९२३३०९२९
[3] ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ 350-51
[4] ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ 239
[5] ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ 239
[6] रामविलास शर्मा, ‘मुक्तिबोध का आत्म संघर्ष और
उनकी कविता’ नई कविता और अस्तित्ववाद, पृष्ठ- 150
[7] मुझे कदम कदम पर, मुक्तिबोध रचनावली, पृष्ठ 172
[8] मेरे लोग, उपरोक्त, पृष्ठ- 222
[9] चकमक की चिंगारियाँ, उपरोक्त, पृष्ठ 243
[10] अंतःकरण का आयतन, मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ-151-152
[11] एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन, मुक्तिबोध
रचनावली-2, उधृत- आलोचना, जुलाई-सितम्बर 2015
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